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प्रत्यक्ष प्रमाण
उसकी दो अवस्थाएं हैं - (१) युक्तावस्था और (२) वियुक्तावस्था । युक्तावस्था में धर्मादिसहित आत्मा और अन्तःकरणादि के संयोग से ही समस्त विषयों का ग्रहण होता है । अशेषार्थग्रहण परमयोगी की दृष्टि से बतलाया गया है, क्योंकि योगिसामान्य को अशेष अर्थों का ग्रहण नहीं होता है । आत्मा और अन्तःकरण के संयोग से ही होता है, यह अवधारण अर्थसन्निकर्ष के निषेध के लिये है । इससे सहकारिमात्र का निषेध नहीं किया गया है, क्योंकि 'धर्मादिसहितात्' के द्वारा उसका कथन कर दिया गया है । वियुक्तावस्था में अर्थसंनिकर्ष होता है ।
सर्वज्ञ ने आर्षज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में ही अन्तर्भाव माना है । अतः यहां आर्षज्ञान के योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव का विवेचन किया जा रहा है ।
आर्षज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव
प्रशस्तदेव तथा उनके अनुयायी वैशेषिक आचार्यों ने प्रत्यक्ष, लैंगिक, स्मृति और आर्षज्ञान भेदभिन्न चतुर्विध विद्या में आर्षज्ञान को माना है ।" वैशेषिक इस आज्ञान को योगिप्रत्यक्ष से भिन्न मानते हैं । वे प्रातिभापरपर्याय आर्षज्ञान की सत्ता मानते हैं । सर्वप्रथम 'पदार्थधर्मसंग्रह' में श्री प्रशस्तपाद ने इसका प्रतिपादन किया है। उनका कथन है कि वेद-निर्माता त्रिकालदर्शी ऋषियों को अतीन्द्रिय, अतीत, अनागत, वर्तमान विषयों का ज्ञान धर्मविशेष के साहाय्य से आत्ममनःसंयोग से होता है, उसे ही आर्पज्ञान कहते हैं । इस ज्ञान को स्मृतिज्ञान की तरह अप्रारूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह यथार्थानुभवरूप है । प्रमारूप ज्ञान मानकर भो उसे धूमदर्शनजन्य वहूनिज्ञान की तरह परोक्ष भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह ज्ञान लिंगानुसन्धान के बिना होता है । अपरोक्ष इसलिये नहीं माना जा सकता कि अतीन्द्रिय तथा अतीत, अनागत वस्तुओं के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध नहीं है और अपरोक्षज्ञान विषयेन्द्रियसन्निकर्षजन्य होता है । आत्ममनः संयोगजन्य इसलिये नहीं हो सकता कि बाह्य विषय में अन्तःकरण की प्रवृत्ति नहीं होती । प्रमाणान्तर मानने पर प्रत्यक्ष, अनुमान दो ही प्रमाण हैं, इस वैशेषिकसिद्धान्त का व्याघात होता है । अतः इस आर्षज्ञान को उन्होंने धर्मविशेषसहकृत आत्ममनः - संयोग से जन्य प्रत्यक्ष माना है । धर्मविशेष संस्कृत अन्तःकरण की प्रवृत्ति उसी प्रकार बाय विषय में संभव है, जैसे योगजधर्म सहकृत अन्तःकरण की । योगिप्रत्यक्ष में योगजधर्मानुगृहीत अन्तःकरण की बाहूय अतीन्द्रियः अतीत अनागत विषयों में
1. एतच्च परमयोगिविवक्षयोक्तम्, न तु योगिमात्रम्या शेषार्थग्रहणं भवति ।
-न्यायभूषण, पृ. १७०
2. विद्यापि चतुर्विधा । प्रत्यक्ष लैङ्गिकस्मृत्यार्षलक्षणा । -- प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १५३ 3. आम्नाय विधातूणामृषीणामतीतानागतवर्तमानेष्वतीन्द्रियेषु धर्मादिषु ग्रन्थोपनिबद्धेषु अनुपनिबद्वेषु चात्ममनसोः संयोगाद् धर्मविशेषाच्च यत्प्रातिमं यथात्मनिवेदनं ज्ञानमुत्पद्यते तद् 'आम्' इत्याचक्षते । -- प्रशस्तपादभाध्य, पृ. २०८, २०९
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