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प्रत्यक्ष प्रमाण
यहाँ एक अवान्तर विचार अनिवार्य-सा उठ खड़ा होता है कि श दार्थसम्बन्ध का प्रमात्मक प्रत्यक्ष कौन लोग मानते थे, जिनको ध्यान में रखकर बौद्धों ने उसके
ो भ्रमात्मक माना है। विचार करने पर स्पष्ट है कि शब्दार्थ-सम्बन्धको प्रमा मानने वालों में जैमिनिदर्शन और वाक्यपदीयकार का विशिष्ट स्थान है। जैमिनि ने 'औत्पत्तिकस्तु शब्दस्याथन सम्बन्धस्तस्य ज्ञानमुपदेशोऽव्यतिरेकश्चार्थेऽनुपलब्धे तत्प्रमाणं बादरायणस्यानपेक्षत्वात्' इस सूत्र में कहा है कि शब्द का अर्थ के साथ सम्बन्ध औत्पत्तिक होता है । औत्पत्तिक शब्द का अर्थ करते हुए शबरस्वामी ने लिखा है-'औत्पत्तिक इति नित्यं बमः' । वे शब्दार्थसम्बन्ध के ज्ञान को अव्यतिरेक या अव्यभिचारी बताते हुए प्रमात्मक मानते है. क्योंकि वह इतरप्रमाण की अपेक्षा के बिना ही अपने अर्थ का बोध कराता है । बादरायण की साक्षी देकर यह भी सिद्ध कर दिया है कि ब्रह्मसूत्र के रचयिता महर्षि व्यास को भी यह सम्मत है। यद्यपि वह सूत्र धर्मप्रमाणपरक है, तथापि उसके पदविन्यास से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि वह शब्दार्थसम्बन्धज्ञान को प्रमा भी बतला रहा है। ___ जाति और आकृति दोनों मीमांसकमत में पर्याय माने जाते हैं, जबकि जाति और आकृति को तार्किक भिन्न-भिन्न मानते हैं । जैसा कि--
'जातिमेवाकृति प्राहुः व्यक्तिराक्रियते यया । इस वचन से स्पष्ट हो रहा है । गो में सास्नादिमत्व आकार सभीको प्रत्यक्षसिद्ध है और शब्द का सम्बन्ध उसकी जाति से माना जाता है । क्रिया का योग 'ब्रीहीन् अवहन्ति' और गुण का सम्बन्ध 'अरुणया पिंगाक्ष्या एकहायन्या...' इत्यादि स्थलों पर स्पष्ट किया गया है। ये ही वे विकल्प हैं, जिनके विषय में बौद्धों का कहना है कि ये स्वलक्षण में काल्पनिक हैं, किन्तु मीमांसकों ने उन्हें वास्तविक और प्रत्यक्षप्रमाण का विषय माना है । कुमारिल भट्ट ने स्पष्ट लिखा है
'लतः परं पुनर्वस्तु धमॆर्जात्यादिभिर्यया ।
बुद्ध्यावसीयते सापि प्रत्यक्षत्वेन सम्मता ।' इस प्रकार मीमांसकों ने शब्दसम्बन्ध को प्रत्यक्ष माना है । वाक्यपदीयकार भर्तृहरि ने भी
'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमाद् ऋते ।
अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते ॥" 1. जैमिनिसूत्र, ५/१/५. 2 शाबरभाष्य, १/१/५. 3. मीमांसाश्लोकवार्तिक, आकृतिवाद, का० ३. 4. मीमांसाश्लोकवार्तिक, पृ. १७३ (सूत्र ४, का. १२०) 5. बाक्यपदीय (ब्रह्मकाण्ड), कारिका १२३, पृ. १०२,
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