SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न्यायसार ऐसा कहकर प्रत्येक पदार्थ का भान शब्दसंसृष्ट माना हैं । अतः प्रदार्थ का प्रत्यक्ष होने के साथ-साथ शब्दसंसर्ग का भान भो प्रत्यक्ष से ही होता है । मण्डन मिश्र ने ब्रह्मसिद्धि में 'सर्वप्रत्ययवेद्येऽस्मिन् ब्रह्मरूपे व्यवस्थिते' ऐसा कहकर प्रत्येक ज्ञान को ब्रह्मसंसृष्ट पदार्थविषयक माना है । उनका (मण्डन का) भी ब्रह्म शब्दात्मक ही माना गया हैं। शब्दब्रह्म और परब्रह्म का ताद त्म्य मानते हुए उन्होंने कहा है र 'सर्वप्रत्ययवेद्ये वो ब्रह्मरूपे व्यवस्थिते । प्रपचस्य प्रवलयः शब्देन प्रतिपाद्यते ।।1 'अक्षरमिति शब्दात्मतामाह ।' इस सम्बन्ध में भासर्वज्ञ का स्पष्ट मतभेद झलक रहा है। उनकी मान्यता है कि शब्दादिविकल्पजाल का सम्बन्ध यद्यपि उपर्युक्त रीति से प्रत्यक्षग्राह्य है, किन्तु वस्तुतः उन विकल्पों की सत्ता अपने में वैसे ही नहीं है, जैसे कि शुक्ति को रजत में । अतः सविकल्पज्ञान भ्रममात्र है, बौद्धों की इस व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए आचार्य भासर्वज्ञ ने उसे अतीन्द्रिय माना है। सविकल्पकज्ञान जिन शब्दादि विकल्पों को अपने में समेटे हुए प्रतीत होता है, उनका सम्बन्ध अतीन्द्रिय इसलिये है कि वे अन्य इन्द्रियग्राहय हैं और धर्मों अन्य इन्द्रिय से प्राह्म है । अतः वैशिष्ट्य का ग्रहण इन्द्रिय से संभव न होने के कारण अतीन्द्रिय कहा गया है। उनका कहना है कि घटादि वस्तु को देखकर जैसे चक्षु घट एवं घटगत रूपादि पदार्थो का ग्रहण करती है, वैसे यब्दसम्बन्ध का भान पदार्थग्राहक इन्द्रिय से नहीं होता। निर्विकल्पकज्ञान निर्विकल्पक का 'वस्तुमात्रावभासकं निर्विकल्पकम' यह लक्षण किया है । अर्थात वस्तुमात्र का अवभासक निर्विकल्पक ज्ञान होता है । जैसे, जो प्रथम नेत्रसंनिपात से झान उत्पन्न होता है, वह निर्विकल्पक कहलाता है। युक्तावस्था में योगिज्ञान भी निर्विकल्पक ज्ञान होता है। योग से समाधि (एकाग्रता) अभिप्रेत है उसमें स्थित योगी को निर्विकल्पक ही प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है, क्योकि विकल्पता में एकाग्रता की उपपत्ति नहीं हो सकती । 1. ब्रह्मसिद्धि, चतुर्थकाण्डः कारिका ३, पृ. १५७. 2. ब्रह्मासिद्धि, प्रथम काण्ड, पृ. १६. 3. न्यायसार, पृ. ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy