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न्यायसार
एक ही निर्विकलपक वस्तु नाम आदि विकल्पों से सम्बन्धित होकर वैसे ही सविकल्पक बन जाती है, जैसे शुक्ति रजतकल्पना से सम्बद्ध होकर रजततादात्म्यापन्न हो जाती है। रजतसम्बन्धरहित शुल्क निर्विकल्पक और रजतसम्बन्धविशिष्ट सविकल्पक
जा सकती है। विकल्प. विशेषण या प्रकार कभी यस्त का स्वाभाविक अर्थात अनारोपित धर्म होता है और कभी औपाधिक अर्थात् आरोपित । जैसे 'रक्तः पटः' इत्यादि स्थानों पर पटगत रक्तिमा अनारोपित धर्म है, किन्तु 'रक्तः स्फटिकः,' 'इदं रजतम्' इत्यादि प्रतीतियों में रक्तिमा आदि धर्म आरोपित हो होता है । आरोपित वस्तुविषयक प्रतीति को भ्रम माना जाता हैं । भ्रम प्रत्यक्षज्ञान का ही एक प्रकार माना जाता है। रक्त स्फटिक प्रत्यक्षात्मक भ्रम का विषय होने के कारण आरोपित या मिथ्या कहलाता है । इस दृष्टि से सविकल्पक पदार्थ के विषय में विचार करने पर यह तथ्य सामने आता है कि सत् और असत् दो भागों में पदार्थों का वर्गीकरण करने वाले विज्ञानवादियों ने स्वलक्षण को सत तथा सामान्यलक्षण या सविकल्पक को असत् माना है। वहूनित्व धूमसहचरितत्त्र आदि विकल्पकों से संवलित वहनिरूप सविकलपक से जनित अनुमान ज्ञान को भ्रमात्मक इसीलिये माना जाता है कि वह तदभाववति तत्प्रकारक रूप है अर्थात् नाम, जाति, गुण, द्रव्य और क्रिया इन पांच कल्पनाओं से रहित अग्नि में नामादिवैशिष्ट्यावगाही होने के कारण अनुमान ज्ञान पैसे हो भ्रम है. जैसे कि अरजतभूत शुक्ति में रजतावगाहो ज्ञान । यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सविकल्पकत्रस्तुविषयकनकज्ञान और सविकल्पकवस्तुजन्य ज्ञान ये दो पदार्थ हैं। जैसे शुक्तिरजतविषयक 'इदं रजतम्' इत्याकारक ज्ञान तथा 'इदं रजतम्' इत्याकारक शुक्तिरजतज्ञान से जनित 'इदं मदिष्टसाधनम्' इत्याकारक इष्टसाधनत्वादिज्ञान । सविकल्पकप्रस्तुजनित ज्ञान सविकल्पक प्रत्यक्ष है, यह सभी दार्शनिक मानते हैं । अन्तर केवल इतना है कि कुछ लोग उसे प्रमात्मक मानते हैं और कुछ लोग भ्रमात्मक, जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है।
सविकल्पक पदार्थ भ्रमात्मक प्रत्यक्ष का विषय होने के कारण आरोपित माना जाता है, बौद्धों ही इस उद्घोष गा के तल में प्रविष्ट होकर आचार्य भासर्वज्ञ सविकल्पक प्रमाण को अतीन्द्रिय कह देते हैं
'तच्चातीन्द्रियत्वात्साक्षाद उदाहर्तुं न शक्यते,
तत्फलमेव उदाहियते - यथा देवदत्तः । उनका सीधा प्रहार बौद्धसिद्धान्त पर है । उनका कहना है कि किसी अतीन्द्रिय वस्तु को प्रत्यक्ष भ्रम का विषय मानकर आरोपित कहना कैसे संभव हो सकता है? घटादि वस्तु का प्रत्यक्ष करता हुआ कोई भी व्यक्ति उसमें शब्दसम्बन्ध का प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। अतः उसे अतीन्द्रिय कहा जा सकता है न कि आरोपित ।
1. न्यायभूषण, पृ. १७३.
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