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न्यायसार न्यायसूत्रकार, भाष्यकार और वार्तिककार के विरुद्धहेत्वाभास-सम्बन्धी मत के उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि विरुद्ध हेतु सपन में न रहकर विपक्ष में निश्चित रूप से व्याप्त रहता है, जैसाकि परिशुद्धिकार उदयनाचार्य ने कहा है'विपर्ययव्याप्तत्वेन निश्चितो हेतुर्विरुद्वो हेत्वाभास'1 । विरुद्ध के सौत्रलक्षण की व्याख्या करते हुए जयन्त भट्ट ने कहा है-'सपक्षविपक्षयोवृत्त्यवृत्ती हेतोर्लक्षणमुक्तम् , ते यस्य विपर्यस्ते दृश्येते, यः सपक्षे न वर्तते विपक्षे च वर्तते । अर्थान सपक्षवृत्तिता तथा विपक्षावृत्तिता हेतु का स्वरूप है, किन्तु इनका जहां वैपरीत्य हो जाता है अर्थात् हेतु में सपनावृत्तिता व विपक्षवृत्तिता हो जाती है, वह हेतु साध्यविपरीत वस्तु का साधक होने से विरुद्ध कहलाता है, इस उक्ति के द्वारा साध्यविपरीत अर्थ के साधक हेतु को विरूद्ध बतलाया है तथा सूत्राकार का अभिप्राय इसीमें है, यह बोधन किया है। जयन्तभट्टकृत इस सूत्र-व्याख्या से यह सूचित होता है कि विरुद्ध हेतु में विद्यमान सपक्षवृत्तित्व व विपक्षवृत्तित्व का विपर्यास होता है, किन्तु हेतु के प्रथम स्वरूप पक्षवृत्तित्व की सत्ता इसमें भी रहती है।
भासर्वज्ञाचार्य ने जयन्तभट्टकृत व्याख्यान का अनुसरण करते हुए न्यायसार में कहा है-'पक्षविपक्षयोरेव वर्तमानो विरुद्धः' अर्थात जो पक्ष और विपक्ष में रहे तथा सपक्ष में न रहे, उसे, विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं। भासर्वज्ञ ने अपने लक्षण की सूत्रानुसारिता बतलाने के लिये सूत्रगत सिद्धान्ताभ्युपगम का अर्थ साध्यधर्म माना है |* तात्पर्य यह है कि पक्ष में किसी साध्यधर्म को स्वीकार कर जो हेतु उसका विरोधी हो अर्थात् साध्यविरोधी स्वभाव वाला हो, उसे विरुद्ध कहते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि भासर्वज्ञ के अनुसार सूत्र में सिद्धान्ताभ्युपगम द्वारा पक्षसत्त्व सूचित किया गया है । 'पक्षवृत्तित्वे सति विपक्षवृत्तित्वम्' यह विरुद्ध का पूरा लक्षण न्यायसारसम्मत है । विशेषणदल के द्वारा असिद्ध हेतु का निवारण किया है और विशेष्यदल के द्वारा व्यभिचारी हेतु का । इस प्रकार विशेषण और विशेष्य दोनों के द्वारा विरुद्ध का निष्कृष्ट लक्षण प्रस्तुत किया गया है। हेतु में पक्षसत्त्व धर्म का होना दोषाधायक नहीं, किन्तु विपक्षवृत्तित्व अवश्य दोष है । इसीलिये अन्य आचार्यों ने विरुद्ध के लक्षण में साध्याभावव्याप्तत्वमात्र का निवेश किया है ।
वैशेषिक आचार्यो में शिवादित्य को भासर्वज्ञमत से संवादिता प्राप्त होती है । प्रकृत हेत्वाभाव के विषय में भी उनकी भासर्वज्ञमत से सहमति है। केशव मिश्र, अन्नंभट्ट, जगदीश तर्कालंकार आदि परवर्ती प्रकरणग्रन्थकारों ने विरुद्ध हेत्वाभास को विपक्षवृत्ति ही बतलाया हैं। 1. तात्पर्यपरिशुद्धि १।२।६ 2. न्यायमंजरी उत्तरभाग, पृ० १५६ । 3. न्यायसार, पृ.७ 4. न्ययभूषण पृ. ३०९ 5. सप्तपदार्थी, पृ. ७४ 6. (अ) साध्यविपर्ययव्याप्तो हेतुविरुद्धः ।-तकभाषा, पृ. १३१.
(ब) साध्याभावव्याप्तो हेतुर्विरुद्धः ।-तर्कसंग्रह, पृ. ६१ (स) साध्याभावव्याप्तो हेतुर्विद्धः । - तर्कामृत, पृ० ३१
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