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________________ २१४ न्या.सार धात्मा जिस आत्मा का मुख्यतया तथा साक्षात् तत्त्वज्ञान आत्यन्तिक दुःखनिवृत्तिरूप मुक्ति का या निन्य सुखाभिव्यक्तिसहत अत्यन्त दुःखानवृत्तिरूप मोक्ष का कारण है, वह आत्मा पर-अपर भेद से दो प्रकार का है। उनमें परमात्मा ऐश्वर्यादि गुणों से विशिष्ट. मंसारधर्म राग, द्वेष, मोह से सर्वथा असं दृष्ट, पर, भगवान् . महेश्वर, सर्वज्ञ तथा सम्पूर्ण संसार का रचयिता माना गया है। इन्द्रादि भी महैश्वर्य से युक्त हैं, अतः उसमें परमात्मत्व की व्यावृत्ति के लिये संसार धर्मा से असंस्पृष्ट विशेषण दिया है। संसारधर्मो से अस पृष्टता लयस्थ यागियों में भी है, अतः उनके व्यवच्छेद के लिये पर पद दिया है गया है । परत्व सांखयाभिमत प्रधान में भी है, उसका व्यावृत्ति के लिये भगवान् पद दिया है । भगवत्व व्यासादि में भी है. तव्यावृत्त्ययं महेश्वर पद दिया गया है, क्योंकि महेश्वर का अभिप्राय धर्म, ज्ञान, वराग्य, ऐश्वर्य, यश तथा श्रा-इस षडू वध भग की परिपूर्णता है। व्यासादि में एक-दो भगों का परिपूर्णता हाते हुए भी नि:शेष भगों का पारपूर्णता नहीं है। सर्वज्ञत्व योगियों में भी उसपन्न है, तव्यावृत्त्यर्थ सकलजगद्वधाता पद दिया है। योगबल से योगियों के सर्वज्ञ होने पर भी जगद्रचनासामर्थ उनमें नहीं है, जैसाकि ब्रह्मसूत्र में लिखा है - जगद्व्यापार र्ज प्रकरणादसनिाहतत्वाच्च ।। ईश्वरसिद्धि परमात्मा 'अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययम् इत्यादि श्रुतियों से शब्दादिरहित है, अतएव इन्द्रियागोचर है । उसका प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञ न संभव नहीं, अतः उसकी सिद्ध अनुमान तथा आगम प्रमाण से मानी जाती है । भासर्वज्ञ ने 'विवादाध्यासतम् उपलब्धिमत्कारणकम्, अभूबा मावित्वात् वस्त्रादिवत्' यह अनुमान परमात्मसिद्धि के लिये प्रयुक्त किया है । इस अनुमान में धनि विशेष का निर्देश न करने पर भी बुद्धिमत्पूर्वकत्वरूप साध्यविशेष का निर्देश होने से जिन वस्तुओं में वादी बुद्धमपूर्वकत्व मानता है और प्रातवादा नहीं मानता है, ऐसे विवादास्पद क्षित्यं कुरादिरूप पक्षविशेष का लाभ हो जाता है। अतः लक्षण में सान्दग्धपक्षता दोष नहीं है । दृष्टान्तभूत वस्त्रााद की रचना चेतनप्रेरित शरारादि के द्वारा हा हो। से दृष्टान्तासिद्धि अर्थात् दृष्टान्त में साध्याकलता भी नहीं है। 1. स द्विविघ. | परवापराचे ते । -न्यायसार, पृ.३५ 2. न्यायसार, पृ. ३५ 3. ब्रह्ममूत्र, १।४।१७ 4. कठोपनिषद्, १।३।१५ 5. न्यायसार, पृ. ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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