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________________ उपसंहार २४५ आनन्द संक्तिसहित दुःखात्यन्तनिवृत्तिरूप मोक्ष का स्वरूप-प्रतिपादन, कर्म का गुणान्तर्भाव, दिक् तथा काल के पृथक् द्रव्यत्व का अस्वीकार, अपरत्व, संख्या, वेग इन गुणों का अस्वीकार, स्नेह को घृतादि पृथिवी का गुण मानना आदि इसके उदाहरण हैं । न्यायदर्शन पर दिङ्नाग, धर्मकीर्ति आदि बौद्धों के प्रहारों का प्रबल तर्को से निराकरण भो भासर्वज्ञ ने किया। इस प्रकार न्यायदर्शन के शुद्ध स्वरूप को उन्होंने प्रतिष्ठित किया । प्रकृत शोधप्रबन्ध में प्रसंगतः भासर्वज्ञ की इन सभी विशेषताओं का विवेचन किया गया है। इस उपसंहार में उन्हीं विशेषताओं का संक्षेप से दिग्दर्शन कर इस शोधप्रबन्ध के निष्कर्ष तथा उपयोगिता को प्रस्तुत किया जा रहा है प्रमाणसामान्यलक्षणनिरूपणात्मक द्वितीय विमर्श में वैशेषिकों द्वारा पृथक्तया अविद्याभेदत्वेन स्वीकृत ऊह तथा अनध्यवसाय का अनवधारणात्मक ज्ञान होने से संशय में अन्तर्भाव बतलाया है। तर्कापरपर्यायत्वेन ऊह को नेयारिकों ने भी अप्रमा के संशय व विपर्यय भेदों से भिन्न माना है, किन्तु भासर्वज्ञ ने उसको संशय में अन्तर्भावित कर स्वतन्त्र विचारक होने का परिचय दिया है। इसी विमर्श में प्रमाणों के सम्प्लव व व्यवस्था दोनों का सोदाहरण प्रतिपादन करते हुए एकान्ततः व्यवस्थितप्रमाणवादी बौद्धों के मत का सयुक्तक निराकरण किया है और प्रमाणों की संख्या का निर्धारण करते हुए प्रमाणों की इयत्ता न मानने वाले चार्वाकसूत्रों के व्याख्याकार उद्भट के मत का भी सप्रमाण प्रत्याख्यान किया है। ज्ञ ने संशय नरूपणपरक 'समानधमो...' इस सूत्र को भाष्यकार व वातिककारसम्मत व्याख्या में परिवर्तन कर उपलब्धि तथा अनुपलब्धि की आवृत्ति मानकर उनको संशयविशेष का कारण माना और उपलब्धि तथो अनुपलब्धि की अव्यवस्था को संशय का साधारण कारण मानकर पांचों प्रकार के संशय के लक्षण में उनका समावेश कर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है। वैशेषिकसम्मत स्वप्नज्ञान का भी विपर्यय, संशय, स्मृति तथा समीचीन ज्ञान में अन्तर्भाव कर पृथक्त्व निराकृत किया है। स्वप्नज्ञान का उपर्युक चारों में . अन्तर्भाव इसलिये किया है कि कोई स्वप्नज्ञान विपर्ययात्मक, कोई संशयात्मक, कोई स्मरणात्मक तथा कोई अनुभवात्मक होता है । अतः स्वप्नज्ञान जिस प्रकार है, उसका उसी में अन्तर्भाव किया है। इसी विमर्श में भासज्ञप्रतिपादित विभिन्न दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत अख्याति, असख्याति आदि अष्टविध ख्यातियों के स्वरूप का भी स्पष्ट विश्लेषण है। यद्यपि ये अष्टविध ख्यातियाँ विभिन्न दाशनिकों द्वारा अपने अपने शास्त्रों में प्रतिपादित थी, किन्तु भासर्वज्ञ से पूर्व वाचस्पति आदि ने प्रायः पंचविध ख्यातियों का ही निरूपण किया है, सबका नहीं । भासर्बज्ञ ने ही अपने न्योयभूषण प्रन्थ में सर्वप्रथम सब ख्यातियों का स्पष्ट विवेचन किया है। 'प्रत्यक्ष प्रमाण' नामक तृतीय विमर्श में भी भासर्वज्ञ द्वारा उभावित कितनी ही विशेषताओं का प्रतिपादन किया गया है। जैसे, सूत्रकारकृत 'इन्द्रियार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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