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________________ उपसंहार भासर्वज्ञ न्यायदर्शन की प्राचीन तथा गंगेशोपाध्याय द्वारा प्रवर्तित नव्य इन दो धाराओं के मध्यकाल में हुए हैं। नव्यन्यायधारा का भासर्वज्ञ के समय तक प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। किन्तु न्यायदर्शन की प्राचीन धारा अर्थात प्राचीन न्याय का भासर्वज्ञ के समय तक पर्याप्त विकास हो गया था। न्यायभाष्यकार वात्स्यायन, वार्तिककार उद्योतकर, तात्पर्यटीकाकार दार्शनिक-सार्वभौम वाचस्पति मिश्र आदि ने अपनी वैदुष्यपूर्ण व सारगर्भित विवेचनाओं से इसका पर्याप्त विकास कर दिया था। किन्तु इन विद्वानों ने न्यायसूत्रकार गौतम के सूत्रों का कम अपनाकर तदनुसार ही न्यायदर्शन के पदार्थों का विवेचन किया. उनके विवेचन में न नवीन क्रम अपनाया और न उनके स्वरूप पर परम्परा से हटकर स्वतन्त्र समीक्षण किया । अर्थात् न्यायसूत्रकार गौतम ने प्रमाणप्रमेयादि पदार्थों का जो स्वरूप बतलाया था, उसी का व्याख्यान द्वारा विश्लेषण प्रस्तुत किया। इसका कारण यह भी हो सकता है कि वार्तिककार तथा तात्पर्य-टीकाकार ब्याख्याकार होने के नाते न्यायभाष्य से बँधे हुए थे, अतः वे पदार्थो के विवेचन में वैज्ञानिक अभिनव क्रम नहीं अपना सकते थे और न पदार्थों पर स्वतन्त्रतया ऊहापोहात्मक विचार ही कर सकते थे। वे इतना ही कर सकते थे कि भाष्यकारीय सूत्रव्याख्यान में सूत्रार्थ का स्पष्टीकरण नहीं हुआ या कहीं अपव्याख्यान प्रतीत हुआ तो उसका संशोधन वे अपने व्याख्यान में प्रस्तुत कर दें । यद्यपि भासर्वज्ञ के पूर्ववर्ती न्यायमंजरीकार जयन्त भट्ट ने गौतमसूत्रों की व्याख्या करते हुए भी केवल सूत्रों की व्याख्या प्रस्तुत न कर स्वतन्त्र ऊहापोह भी किया, पर पूर्णतया नहीं। इसी प्रकार समानतन्त्र वैशेषिक दर्शन के आवश्यक तत्त्वों का स्वीकार करना तो 'परमतप्रतिषिद्धमनुमतं भवति' इस न्याय के अनुसार आवश्यक था, क्योंकि उनका निरूपण न्यायदर्शन में नहीं किया गया है, तथा प न्यायदर्शन पर वैशेषिकशास्त्र का इतना प्रभाव छा गया था कि वैशेषिक दर्शन के कतिपय तत्त्वों का ग्रहण उनके औचित्यानौचिस्य पर कुछ भी विचार न कर अनावश्यक व असंगत होते हुए अन्धानुकरण के रूप में किया । भासर्वज्ञ ने सर्वप्रथम न्यायदर्शन के पदार्थो के विवेचन में सूत्रक्रम से भिन्न वैज्ञानिक क्रम अपनागा, उन तत्त्वों के स्वरूप पर स्वतन्त्र बुद्धि से विचार किया तथा आवश्यकतानुसार उनके स्वरूप में परिवर्तन भी। ऊह तथा अनध्यवसाय का संशय में अन्तर्भात्र, प्रत्यक्ष लक्षण में परिवर्तन, समवाय का यौक्तिक प्रत्यक्षता का प्रतिपादन, अनध्यवसित हेत्वाभास का स्वीकार, उपमान के पृथक् प्रामाण्य का निराकरण आदि इसके स्पष्ट निदर्शन हैं। इस प्रकार वैशेषिक दर्शन के अनुचित प्रभाव से न्यायदर्शन को मुक्त भी किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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