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________________ २४६ सन्निकर्षोत्पन्नमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् इस परम्पराप्राप्त प्रत्यक्ष लक्षण का निराकरण कर 'अपरोक्षत्वजातिमत्वम् प्रत्यक्षत्वम् ' इस लक्षण का स्वीकार, 2 वार्तिक करमत का प्रत्याख्यान कर ज्ञानगत परोक्षत्व व अपरोक्षत्व जाति की स्थापना, वैशेषिकसम्मत आर्ष प्रत्यक्ष का प्रकृष्टधर्मजत्वरूप साधर्म्य के कारण योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव, समवाय के परम्पराप्राप्त विशेषणविशेष्यभाव सम्बन्ध से इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षत्व का निराकरण व उसके यौक्तिक प्रत्यक्ष की स्थापना ", नाम जात्यादि -- द-- सम्बन्ध के ग्राहक सविकल्पक प्रत्यक्षत्व - प्रतिपादन करते हुए भी नामजात्याद के सम्बन्ध के इन्द्रियग्राह्य न होने से उसका अतीन्द्रियत्वप्रतिपादन । इसके अतिरिक्त नित्य आत्मा, आकाश आदि तथा अनित्य घटपटादि पदार्थो में लनुगत संयोग को परिभाषा का विवेचन, अज संयोग के विषय में भासर्वज्ञ से पूर्वत्र नैयायिकों की मान्यता का अनुसन्धान, शब्द का द्रव्यत्वनिराकरण, प्रत्यक्ष शब्द के व्युत्पत्तिविषयक बौद्धमत का निराकरण कर प्रत्यक्ष शब्द के व्युत्पत्त्यर्थ का प्रतिपादन आदि का भी इस विमर्श में समावेश किया गया है । " 6 अनुमान प्रमाण नामक चतुर्थ विमर्श में अथ तत्पूर्वकमनुमानम्, इत्यादि सूत्र में भाष्यकार, वार्तिककार, जयन्त भट्टादि द्वारा प्रतिपादित 'तत्पूर्वक मनुमानम्' इस अनुमान - लक्षण का निराकरण कर सूत्र में अनुमानम्' पद ही अनुमीयतेऽनेनेति' व्युत्पत्ति द्वारा ' अनुमितिसाधनमनुमानम्' इस अनुमानलक्षण का प्रतिपादक है, इस भासर्वज्ञ मत का प्रतिपादन कर भासर्वज्ञसम्मत 'सम्यगविना भावेन परोक्षानुभवसाधनमनुमानम् 7 इस लक्षण का विवेचन, व्याप्तिस्वरूप, व्याप्तिग्राहक भूयोदर्शन का स्वरूप, अनुमान के दृष्ट, सामान्यतोदृष्ट तथा केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी, अन्वयव्यतिरेकी भेद, परार्थानुमान के प्रतिज्ञादि पांच अवयव, दृष्टान्ताभास तथा अनध्यवसितसहित असिद्धादि ६ हेत्वाभासों का स्पष्ट विवेचन प्रस्तुत किया गया है । इस विमर्श में ही अनुमानलक्षण, व्याप्तिग्राहक भूयो दर्शन, षष्ठ अध्यवसित हेत्वाभास, विरुद्धाव्यभिचारी हेत्वाभास आदि के विवेचन में भासज्ञ की विशेषताओं का दिग्दर्शन है । ܕ 1. न्यायसूत्र १।११४ 2. व्रष्टव्य - शोधप्रबन्ध, पृ. ७४-७५ "1 3. वही, पृ. ७३-७४ 4. वही, पृ. १०१, १०२, १०३ Jain Education International “ 'कथा निरूपण तथा छल-जाति - निप्रहस्थाननिरूपण' नामक पंचम विमर्श में वाद, जल्प, वितण्डा कथाओं का निरूपण करते हुए यह बतलाया गया है कि भासर्वज्ञ ने परम्परा का परित्याग कर स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा इस न्यायसूत्र में 'सः' पद से वाद और जल्प का ग्रहण कर वितण्डा कथा के वीतरागवितण्डा तथा विजिगीषुः वितण्डा भेद से दो भेदों का प्रतिपादन किया है। इसी प्रकार वादकथारूप वीतराग कथा के भी सरतिपक्ष, अप्रतिपक्ष भेद से दो भेद बतलाये हैं और इन दो है म न्यासार 6 For Private & Personal Use Only 5. वही, पृ. ९५-९८ 6 न्यायसूत्र १।११५ 7. न्यायसार, पृ. ५ www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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