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________________ उपसंहार २४७ भेदों में स्वकपोलकल्पितत्ता का निराकरण करते हुए प्रमाण रूप में 'प्रतिपक्षहीनमपि वा प्रयोजनार्थमर्थित्वे " इस न्यायसूत्र को उद्धृत किया है । जातिनिरूपण में 'साधर्म्य कार्यसमा इति' इस न्यायसूत्र में प्रतिपादित २४ जातिभेदों में प्रसगसम, प्रतिदृष्टान्तसम, संशयसम, प्रकरणसम, अर्थापत्तिसम, उपपत्तिसम, अनित्यसम, कायसम, इन आठ जाति-भेदों का न्यायसार में निरूपण नहीं किया, क्योंकि उनकी साधर्म्यसमादि के साथ समानता है तथा सभी जातिभेदों का निरूपण यहां अभीष्ट नहीं है । सूत्रकार ने दिग्दर्शनमात्र के लिये सूत्र में २४ भेदों का परिगणन किया है, सबका नहीं । और भी अनन्यसम, सम्पतिपत्तिसम, व्यवस्थासम आदि जातियां विद्यमान हैं जिनका सूत्र में परिगणन नहीं किया गया है, न उनका उदाहरण दिया गया है और न उसका निराकरण ही किया गया है । निग्रहस्थानों के भी असंख्यात होने से सूत्रकार ने सूत्रों में तथा भासर्वज्ञ ने अपने न्यायसार में प्रतिज्ञाहीन आदि २२ निग्रहस्थानों का ही निरूपण किया है । इसके अतिरिक्त असिद्ध, विरुद्ध आदि हेत्वाभासों का हेत्वाभासप्रकरण में प्रतिपादन कर ही दिया गया है । इनके निरूपण में धर्मकीर्ति की आशंकाओं के निराकरण को छोड़कर और किसी विशेषता का प्रतिपादन नहीं किया है । 6 ' आगमप्रमाणनिरूपण' नामक षष्ठ विमर्श में सपदकृत्य आगमप्रमाण के लक्षण का निरूपण, दृष्टार्थ - अदृष्टार्थ भेद से आगम का द्वैविध्य, वेदों के प्रामाण्य में मीमांसकाभिमत अपौरुषेयत्व की कारणता का निराकरण कर ईश्वरप्रणीतत्व की कारणता का निरूपण, वर्णनित्यता का निराकरण, अर्थापत्ति, अभाव, सम्भव, ऐतिह्य व उपमान के पृथक् प्रामाण्य का निराकरण आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है । इस विमर्श में भी शब्दज्ञान तथा ज्ञायमान शब्द दोनों का शाब्द प्रमा का करण मानना, उपमान के पृथक् प्रामाण्य का निराकरण, उपमान के पृथक् प्रमाण न होने पर भी उपमान - लक्षण का सूत्रकार द्वारा निरूपण शब्दप्रामाण्य की सिद्धि के लिये है. इस तथ्य का प्रतिपादन, उपमान प्रमाण के उद्देश, लक्षण तथा परीक्षाविषयक सूत्रों का अपने पक्ष में योजन आदि भासर्वज्ञ की विशेषताएं उल्लेखनीय हैं । इस विमर्श के अन्त में उपमान प्रमाण का निराकरण सूत्रसंगत नहीं है, इसका प्रदर्शनकर भासर्वज्ञमत की सप्रमाण समीक्षा भी की गयी है । 2 ' प्रमेयनिरूपण ' नामक सप्तम विमर्श में संक्षेप में प्रमेयविशेष का लक्षण, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ आदि द्वादश प्रमेयों का संक्षेप से निरूपण, अपवर्गोपयोगित्वेन द्वादश प्रमेयों का हेय, हेयहेतु, हान तथा हानोपाय इन चार भागों में विभाजन, आत्मसिद्धि, शरीर, इन्द्रिय आदि का आत्मत्वनिराकरण, आत्मविभुत्व, आत्मनित्यत्व का प्रतिपादन, परलोकोपयोगित्वेन अपरात्मा का स्वीकार तथा क्लेशनिवृत्ति द्वारा अपरात्मा की मोक्षांगता का प्रतिपादन, परमात्मा के अस्तित्व में प्रमाण तथा उपासनांगत्वेन उसकी मोक्षोपयोगिता का प्रतिपादन है । 1. न्यायसूत्र ४।२।४९ 1. द्रष्टव्य - प्रस्तुत शोधप्रबन्ध, पृ. २६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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