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________________ प्रमाणसामान्यलक्षण ४५ मेघगर्जनरूप कार्य के द्वारा अनुमान प्रमाण से ही होता है। इसी प्रकार प्रत्यक्ष दृष्ट करपादादि का ज्ञान प्रत्यक्षरूप प्रमाण द्वारा ही होता है, क्योंकि प्रत्यक्ष द्वारा उनका ज्ञान हो जाने पर अनुमान व आगम प्रमाणो की आकांक्षा न होने से उनकी वहां प्रवृत्ति नहीं है । इस प्रकार प्रत्येक प्रमाण का पृथक्-पृथक् व्यवस्थित विषय भी होता है। जयन्त भट्ट ने भी भाष्यकार के इस प्रमाणसम्प्लव तथा प्रमाण. व्यवस्था का उल्लेख किया है । प्रमाणसंप्लवसंबन्धी बौद्धों की आशंका का निराकरण बौद्ध दो प्रकार का प्रमेय मानते हैं-स्वलक्षण और सामान्य । उनकी यह मान्यता है कि प्रत्यक्ष स्वलक्षणविषयक होता है, अर्थात् वस्तु का असाधारण स्वरूप प्रत्यक्ष का विषय होता है । वस्तुओं का समारोप्यमाण साधारण स्वरूप सामान्यलक्षण होता है। सामान्यलक्षण अनुमान के द्वारा ग्राह्य होता है । इस प्रकार प्रमेयानुसार प्रमाण व्यवस्थित विषयक हैं, उनका किसी भी विषय में संप्लव नहीं । अतः बौद्ध व्यवस्थित प्रमेयप्रमाणवादी कहलाते हैं। परमार्थिक और सांवृतिक-दो प्रकार की सत्ताओं को लेकर बौद्धों ने अपना समस्त वाग्व्यवहार माना है। जैसा कि कहा है-'द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना' : प्रत्यक्षप्रमाण पारमार्थिक है और अनुमान प्रमाण सांवृतिक है । स्वलक्षण तत्त्व पारमार्थिक है और सामान्य लक्षण काल्पनिक । प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण होने के कारण उसे पारमार्थिक कहते हैं और अनुमान का विषय सामान्य होने के कारण उसे सांवृतिक कहते हैं। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि वस्तुदृष्टि से प्रमाण एकमात्र प्रत्यक्ष है, अनुमान नहीं, क्योंकि अनुमान का विषय कल्पना पर आश्रित है, वस्तु पर नहीं । 1 तदुदाहरणं तु भाष्यकार: प्रशित वान......, अग्निराप्तोपदेशात्प्रतीयतेऽमुत्रेति प्रत्यासीदता धूमदर्शनेन अनुभीयते प्रत्यासन्नतरेण उपलभ्यते इत्यादि क्वचित्त व्यवस्था दृश्यते यथा अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इत्यस्मदा देरागमादेव ज्ञानं न प्रत्यक्षानुमानाभ्याम्..., स्वहस्तो द्वौ इति तु प्रत्यक्षादेव प्रतीतिन शब्दानुमानाभ्यामिति, तस्मास्थितमेतत् प्रायेण प्रमाणानि प्रमेयमभिसंप्लवन्ते क्वचित्तु प्रमेये व्यवतिष्ठन्तेऽपोति ।-न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ ३३. 2 सामान्येन लक्षणं सामाम्यलक्षणम् । साधारण रूपमित्यथ:। समारोप्यमाणं हि रूपं सबल. बह्विसाधारणम् । तत् सामान्य लक्षणम् :-न्यायबिन्दुटीका, पृ. १५. 3 माध्यमिककारिका, २४१८. 4 शांकरवेदान्त संभवतः इन्हीं विचारों से प्रभावित होकर महावाक्यों को एकमात्र परमार्थिक प्रमाण और उनसे भिन्न प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, लौकिक शब्द और अर्थापत्ति-इनको व्यावहारिक प्रमाण मानता है । क्योंकि एकमात्र ब्रह्म वस्तु अवाधित तत्त्व है । अतः महावाक्य अबाधितविषयक है और प्रत्यक्षादि बाधितविषयक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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