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न्यायसार
- इनके विपरीत नैयायिक अव्यवस्थितप्रमाणवादी हैं। उनके अनुसार प्रमाणों का कहीं सम्लब तथा कहीं व्यवस्था ।' प्रमाणों के सम्बन्ध में इस मान्यता के
औचित्य के लिये सूत्रकार का अवलम्ब लेते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है-'सूत्रकृताऽपि प्रमाणानां समस्तेनैकपदेनाभिधानादभिन्नविषयत्वं सूचितम्, बहुवचनेनाभिधानाद् व्यवस्थित विषयत्वं सूचितमिति' । अर्थात् सूत्रकार ने 'प्रमाण प्रमेय ..' इत्यादि दण्डकसूत्र में प्रमाणों का समस्त एकपद से अभिधान कर उनकी अभिन्नविषयता को सूचित किया है तथा 'प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि' इस सूत्र में बहुवचनान्त प्रयोग से प्रमाणों को व्यवस्थितविषयता का प्रतिपादन किया गया है।
ऊपर यह बतलाया है कि प्रमाणों को संख्या व लक्षण नियत हैं। किन्तु लोकायत सूत्रों के व्याख्याकार उद्भट ने 'अथातस्तत्वं व्याख्यास्यामः,' 'पृथिज्यापस्ते जोवायुरिति' इन सूत्रों की व्याख्या अन्य प्रकार से करते हुए कहा है कि प्रमाण प्रमेयादि की संख्या व लक्षण का नियमन करना शक्य नहीं है । 5AB अतः पृथिवी, जल आदि चार ही तच्च चार्वाक मत में नहीं है, किन्तु इनसे भिन्न भी माने जा सकते हैं । द्वितीय सूत्र में 'इति' पद पृथिव्यादि चार तत्त्वों से भिन्न इसी प्रकार के अन्य तत्त्वों का भी बोधक है। इस तरह पृथिव्यादि प्रमेयों की संख्या का नियमन जैसे अशक्य है वैसे प्रमाणों की संख्या का नियमन भी अशक्य है, इसका समर्थन करते हुए उसने कहा है कि अन्धकार में या नेत्रों का निमीलन करने पर मानव की विरल अंगुलि वाले हाथ में वक्रांगुलित्व का ज्ञान होता है । इस ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं माना जा सकता, क्योंकि नेत्र मूंद लेने पर हस्त से चक्षु का सम्बन्ध नहीं है तथा घोरान्धकार में भी चाक्षुष प्रत्यक्ष संभव नहीं है, क्योंकि चाक्षुष प्रत्यक्ष में आलोकसंयोग भी कारण है और त्वगिन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष इसलिये नहीं माना 3 सकता कि हस्तस्थ त्वगिन्द्रिय का विषय हस्त नहीं', अन्यथा चक्षु भी अपने का प्रत्यक्ष करने लग जायगी । अतः यहां हस्त में अंगुलिवक्रता के ज्ञान के लिये किसी प्रमाणान्तर की आवश्यकता है। इसी प्रकार रात्रि में दूर से दीपशिखा के देखने पर प्रान्तभागों में फैली हुई प्रभाओं की प्रतीति होती है और वायुप्रकम्पित कमलसमूह से दूरस्थगन्ध का ज्ञान होता है। यहां भी पर्यन्त देशप्रसृत प्रभा तथा गन्ध के साथ चश्मरादि इन्द्रियों का सम्बन्ध नहीं है। अतः इनके ज्ञान के लिये भी प्रमाणान्तर की आवश्यकता है, अतः प्रमाणों की इयत्ता संभव नहीं ।.
1. तस्मादस्ति कवचित संप्लवः क्वचिद् व्यबस्था चेति । -न्या. म. पृ. ८३.
न्या. मू घृ. ८३. 2 न्या. सू ।।३. 3 (अ) चार्वाकधूर्तस्तु अथातस्तच्वं व्याख्यास्याम इति प्रतिज्ञाय प्रमाण रमेयसंख्या लक्षणनियमा
शक्यकरणीयत्वमेव तत्वं व्याख्यातवान्, प्रमाणसंख्यानियमाशक्यकरणीयत्वसिद्धये च प्रमिति
भेदान् प्रत्यक्षादिप्रमाणानुपजन्यानीदृशानुपादर्शयत /-न्यायमञ्जरी, पूर्वभाग, पृ. ५.. (ब) चार्वाकल स्त्विति उभटः,...! -न्यायमञ्जरी ग्रन्थिभङ्ग, पृ. १३.
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