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________________ प्रमाणसामान्य लक्षण किन्तु जयन्त भट्ट का कथन है कि उपर्युक्त दोनों स्थलों में क्रमशः त्वाच प्रत्यक्ष तथा अनुमान द्वारा हस्त में अंगुलिवक्रता तथा प्रान्तभागप्रसृत प्रभा में कमलखण्ड का ज्ञान संभव है। क्योंकि नेत्र मूंद लेने पर करस्थत्वग्गत इन्द्रिय का हस्त से संयोग संभव न होने पर भी त्वगिन्द्रिय के सर्वशरीरव्यापि होने से शरीरान्तर्गत स्वगिन्द्रिय का हस्त से संयोग उपपन्न है और त्वगिन्द्रिय शरीरान्तर्गत भी है अत एव तुषारजल पीने पर शरीर के अन्दर शैत्य का ज्ञान होता है। यदि यह कहा जाय कि अंगुलियोग का तो त्वगिन्द्रिय से ज्ञान संभव है, क्योंकि वहां त्वगिन्द्रिय का अंलि से सयोग है, किन्तु अंगुलिवक्रताज्ञान विरलांगुलिस्व के कारण होता है और विरलांगुलित्व अंगुलिसंयोगाभाव है, उसके साथ त्वगिन्द्रिय का सम्बन्ध न होने से वक्रांतुलित्व-ज्ञान त्वगिन्द्रिय से कैसे होगा, यहां आशंका भी समुचित नहीं । क्योंकि 'यो गुणो येनेन्द्रियेण गृह्यते तेनैव तनिष्ठा जातिस्तदभावश्चापि गृह्यते' इस न्याय के अनुसार अंगुलि संयोग की तरह अंगुलिसंयोगाभाव का भी त्वगिन्द्रिय से ग्रहण शक्य है। अतः विरलांगुलित्वरूप अंगुलिसंयोगाभाव का ज्ञान त्वक् से हो जाता है। अंगुलिसंयोगाभाव का घोरान्धकार में त्वगिन्द्रिय द्वारा उपर्युक्त रीति से ज्ञान होने पर भी अंगुलिवक्रता का ज्ञान कैसे होगा, क्योंकि वक्रता केवल संयोगाभावरूप नहीं है, यह शंका भी अनुपपन्न है, क्योंकि अंगुलि. वक्रता अंगुलिगत क्रियाविशेष है। अतः उसका भी त्वगिन्द्रिय से ज्ञान शक्य है क्योंकि त्वक् और चक्षु स्वसम्बद्ध गुण की तरह स्वसम्बद्ध किया का भी प्रत्यक्षज्ञान करती है। अतः सन्तमस में अंगुलिवकता का ज्ञान त्वाच प्रत्यक्ष से संभावित होने से तदर्थ किसो प्रमाणान्तर की आवश्यकता नहीं । इसी प्रकार दूरसे दीपशिखा को देखने पर प्रान्तभागों में प्रसृत प्रभा तथा पवनकम्पित कमल का ज्ञान भी अनुमान प्रमाण से हो जाता है । अतः तदर्थ भी प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं। इसीलिये सभी पदार्थो का ज्ञान नियत प्रमाणों से उपपन्न हो जाने के कारण प्रमाणगत संख्या की अशक्यकरणीयता संभव नहीं और प्रमाणों की संख्या नियत है।। 1. न्यायमञ्जरी, पूर्वभाग. पृ. ६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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