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________________ प्रत्यक्षलक्षण - विमर्श प्रत्यक्ष सभी प्रमाणों का मूल होने के कारण सर्वप्रमाणोपजीव्य है तथा ज्येष्ठ भी है, अतः सर्व प्रथम उसीका निरूपण किया गया है । न्यायसम्प्रदाय में प्रत्यक्ष का इतिहास सुदीर्घ है । अक्षपादकृत प्रत्यक्षलक्षण में समय-समय पर संशोधन किया गया । पुरातन लक्षण में नूतन विचारों की उद्भावना की जाने लगी । भासर्वज्ञाचार्य ने पुरातन परिभाषा का पूर्णतया परित्याग कर प्रत्यक्ष प्रमाण का 'तत्र सम्यगपरोक्षानुभवसाधनम् प्रत्यक्षम् | यह नया लक्षण किया है । इसमें 'प्रत्यक्षम् ' लक्ष्य है और शेषांश लक्षण । सम्यक् पदवद् अपरोक्षपदस्याप्यनुभवपदेन कर्मधारयः ४. 1 " सर्वज्ञ के इस निर्देश के अनुसार 'अपरोक्षानुभव' में 'अपरोक्षश्चासौ अनुभव - ' इत्याकारक कर्मधारय समास है । उस अपरोक्षानुभव के साधन श्रोत्र, रसन, त्वक्, चक्षु, घ्राण तथा मन हैं, अतः उन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जाता है । यागादि भी सभीचीन अपरोक्ष वस्तु स्वर्गादि के साधन हैं, उनमें प्रत्यक्ष लक्षण की अतिव्याप्ति के निवृत्त्यर्थ लक्षण में अनुभव शब्द दिया गया है। धूमादि द्वारा पर्वत में वहूनि ज्ञानरूप अनुभव का साधन तो व्याप्तिज्ञानादिरूप अनुमान भी है. उसमें लक्षण की अतिप्रसक्ति के निवारणार्थ अपरोक्ष शब्द दिया गया है । संशय विपर्ययादिरूप प्रत्यक्षाभास में अतिव्याप्ति की निवृत्ति के लिये 'सम्यकू' शब्द दिया गया है । इस प्रकार सम्यक् अपरोक्षानुभव अर्थात् यथार्थ साक्षात्कार की सिद्धि जिसके द्वारा होती है, उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं । C 'प्रत्यक्षम् ' में कौन सा समास है, इस विषय पर विचार करते हुए भासर्वज्ञ कहा है कि बौद्ध दार्शनिक दिङ्गनाग ने अक्षम् अक्ष प्रति वर्तते 25 ऐसा अव्ययीभाव समास माना है । किन्तु अव्ययीभाव समास मानने पर पंचमी, तृतीया तथा सप्तमी से भिन्न विभक्तियों को ' नाव्ययीभावादतोऽम् त्वपंचम्याः तथा 1. (अ) न्यायसार, पृ. २ (ब) उदयनाचार्यने संभवत: इसी से प्रभावित होकर प्रमा का लक्षण परिष्कृत किया है ' नितिः सम्यक् परिच्छित्ति: ' ( न्याय कुसुमांजलि, चतुर्थ स्तवक, कारिका ५ ) । इसका खण्डनकार ने खण्डन किया है । 2. न्यायभूषण, पृ. ८४. 3. न्यायप्रवेश, भाग १, पृ. ७ 4. पाणिनि सूत्र, २/४ / ८३ तृतीय विमर्श प्रत्यक्ष प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only 74 www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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