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प्रत्यक्षलक्षण-विमर्श 'तृतीयासप्तम्योर्वहुलम् 1 इस सूत्रद्वयो से अम्भाव की आपत्ति होती है। ऐसी स्थिति में 'प्रत्यक्षस्य लक्षगम्', 'प्रत्यक्षो घटः', 'प्रत्यक्षा नारी' इत्यादि व्यवहार नहीं होगा। अतः 'प्रतिगतमक्षं प्रत्यक्षम' यह व्युत्पत्ति मानकर 'कुगतिप्रादयः सूत्र से प्रादितत्पुरुष समास उचित है । प्रादितत्पुरुष मानने पर भी 'द्विगुप्राप्तापन्नालम्पूर्वगतिसमासेषु प्रतिषेधो वाच्य.' इस वचन द्वारा परिवल्लिगता का प्रतिषेध हो जाने से 'प्रत्यक्षस्य लक्षणम्' 'प्रत्यक्षा पुरन्ध्री', 'प्रत्यक्षो घटः' इत्यादि सभी प्रयोग उपपन्न हो जाते हैं ।
प्रत्यक्ष शब्द के व्युत्पत्तिनिमित्त तथा प्रवृत्तिनिमित्त का भेद
प्रत्यक्ष शब्द 'अक्षं प्रतिगतम्' इस व्युत्पत्ति से इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षज्ञानरूप फल, प्रत्यक्षसाधनभूत इन्द्रियसन्निकर्ष तथा प्रत्यक्षज्ञानविषय घटादि इन तीनों का बोधक है, क्योंकि तीनों ही अक्षाश्रित हैं। इनमें प्रत्यक्षज्ञान जन्यत्व सम्बन्ध से, इन्द्रिय संनिकर्ष सहकारित्व सम्बन्ध से तथा घटादिविषय विषयत्व सम्बन्ध से अक्षाश्रित हैं। प्रत्यक्षज्ञान के साधनभूत प्रत्यक्ष प्रमाण मैं अक्षसहकारित्वेत प्रत्यक्ष प्रवृत्ति मानने पर इन्द्रिय में प्रत्यक्षप्रमाणता की अनुपपत्ति है, क्योंकि सहकारी तथा सहकार्य के भिन्न होने से प्रत्यक्ष प्रमाण ही प्रत्यक्ष प्रमाण का सहकारी नहीं हो सकता । प्रमाण-सहकारी पदार्थ प्रमाण से भिन्न होता है क्योंकि प्रमाण-सहकारी उपकारक होता है तथा प्रमाण-सहकृत उपकार्य होता है तथा प्रमाता में भी अक्षसहकारिता के कारण प्रमाणत्व की अतिप्रसक्ति है। जन्यत्वसम्बन्ध से तथा विषयत्वसम्बन्ध से अक्षाश्रित को प्रत्यक्ष मानने पर मिथ्याज्ञानत्वेन प्रत्यक्षप्रमाभिन्न मंशय, विपर्यय तथा विषयत्वेन प्रमाभिन्न सुखादि के भी इन्द्रियजन्य होने से उनमें प्रत्यक्षप्रमाणत्व की आपत्ति है।
इस शंका का समाधान करते हुए भासर्वज्ञाचार्य ने कहा है कि 'अक्ष प्रतिगतम्' यह प्रत्यक्ष का व्युत्पत्त्यर्थमात्र है. प्रवृत्तिनिमित्तरूप अर्थ नहीं । व्युत्पत्त्यर्थ तथा प्रवृत्तिनिमित्तरूप अर्थ भिन्न होते हैं, एक नहीं। अर्थात् शब्दों का व्युत्पत्त्यथ' भिन्न होता है और प्रवृत्तिनिमित्त अर्थ भिन्न । जैसे, गो शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ 'गच्छतीति गौः' इस व्युत्पत्ति से गमनकर्तुत्व है और प्रवृत्तिनिमित्त अर्थ सास्नादिमत्व या गोत्व जाति है। उन दोनों अर्थों में गोशब्दप्रयोग का कारण व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ नहीं, अपि तु प्रवृत्तिनिमित्तलब्ध अर्थ होता है। अतः आसीन गो में भी गोशब्द का प्रयोग होता है तथा चलते हुए पुरुष में भी गोशब्द का प्रयोग नहीं होता, क्योंकि गो में 1. पाणिनीसूत्र २/४/८४ 2. वही, २/२/१८ 3. कात्यायनवार्तिक, १५४५ 4. कथं पुनरक्ष' प्रतिगतम् ! तज्जन्यत्वेन तत्सहकारित्वेन तद्विषयत्वेन चेति । फलं तावदक्षजन्यत्वेन I प्रतिगतम्, फलसाधनं च तत्सहकारित्वेन, तदर्थस्तु तद्विषयत्वेनेति ।
-न्यायभूषण, पृ. ८४-८५. भान्या-६
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