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________________ ५० न्यायसार गोव जाति है, पुरुष में नहीं । इसी प्रकार अक्ष प्रतिगतम् ' अर्थात् किसी भी सम्बन्ध से अक्षाश्रितत्व प्रत्यक्ष शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है, वह प्रत्यक्ष प्रमाण शब्दकी प्रवृत्ति में कारण नहीं । प्रत्यक्ष प्रमाण शब्द की प्रवृत्ति का कारण तो सम्यगपरोक्षानुभव साधनत्वरूप लक्षण है, वह इन्द्रिय में विद्यमान है, संशयादि मिथ्याज्ञान में सम्यगपरोक्षानुभवत्व नहीं, सुखादि में भी सम्यगपरोक्षानुभवविषयत्व है, सम्यगपरोक्षानुभक्त्व नहीं । अतः कहीं भी लक्षण की अतिप्रसक्ति नहीं हैं । प्रत्यक्षत्वादि के जातित्व की व्यवस्था उद्योतकर ज्ञान में परोक्षत्व और अपरोक्षत्व जाति नहीं मानते । किन्तु भासर्वज्ञ का कथन है कि ज्ञानों में परोक्षत्व और अपरोक्षत्र जाति को स्वीकार न करने पर परोक्षज्ञान, अपरोक्षज्ञान इस व्यवहार की अनुपपत्ति होगी । इन्द्रियार्थ संनिकर्षजन्यत्व अपरोक्षत्वव्यवहार का उपपादक नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान में अपरोक्षत्व जाति की सिद्धि के बिना इन्द्रियार्थमनिक र्षजन्यत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । तात्पर्य यह है कि इन्द्रिय के अतीन्द्रिय होने से इन्द्रियार्थसन्निकर्ष का प्रत्यक्ष ज्ञान तो हो नहीं सकता, किन्तु ज्ञानगत अपरोक्षत्र जाति का मानस प्रत्यक्ष होने से उसके द्वारा 'इदम इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्यम्, अपरोक्षानुभक्त्वान्' इस प्रकार से उसका अनुमिति-ज्ञान होता है । जो जो अपरोक्ष अनुभव होता है, वह इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य होता है । इस प्रकार अपरोक्षानुभवत्व जाति के द्वारा ही इन्द्रियार्थ संनिकर्ष जन्यत्व की सिद्धि होती है ।" अतः प्रथम अपरोक्षानुभवस्व जाति मानना आवश्यक है और वही अपरोक्षत्वव्यवहार का प्रवर्तक है । अपि च, प्रत्यक्ष आत्मानुभव और लैंगिक आत्मानुभव का भेद ज्ञानगत परोक्षत्व तथा अपरोक्षत्व जाति माने बिना उत्पन्न नहीं हो सकता । निर्विकल्पक सविकल्पक-भेदविशिष्टार्थावभासित्व को ज्ञानगत धर्म मानकर उसीसे अपरोक्ष व्यवहार के उपपन्न हो जाने से अपरोक्षत्व जाति मानने की क्या आवश्यकता है, यह कथन भी समुचित नहीं, क्योंकि निर्विकल्पक सविकल्पक भेद विशिष्टार्थावभासत्व भी ज्ञानगत जातिरूप धर्म ही है ।" इसे जातिभिन्न ज्ञानधर्म मानने पर भी यह अपरोक्ष व्यवहारका निमित्त नहीं बन सकता, क्योंकि इस लक्षण की निर्विकल्पक सविकल्पकभेदरहिन विशेषमात्र के अवभासक अपरोक्षज्ञान में अव्यांप्ति है । अतः अपरोक्षत्र जाति को ही अपरोक्ष व्यवहार का निमच मानना होगा । सूत्रकार को भी प्रत्यक्षलक्षणसूत्रस्य 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न' पद से प्रत्यक्ष प्रमा की अनुभवत्वविशिष्टता और अपरोक्षत्वविशिष्टता हो अभिप्रेत है, क्योंकि 'अपरोक्षानुभवत्वजातिमत्त्वं प्रत्यक्षप्रमात्वम्' ऐसा प्रत्यक्षप्रमा का लक्षण मानने पर 1 उदूघोतकर इति प्राचीनटिप्पणम् । - न्यायभूषण, पृ. ८५. 2 न्यायभूषण, पृ. ८५. 3 ननु तमभ्यवभासित्वशब्दवाच्यं ज्ञानस्यजातिविशेषादन्य धर्म न पश्यामः । Jain Education International For Private & Personal Use Only न्यायभूषण, पृ. ८६. www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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