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________________ प्रमाणसामान्यलक्षण ५१ उस जाति का मानस प्रत्यक्ष होने के कारण इन्द्रियार्थनिकर्षोत्पन्नत्व लक्षण उपपन्न हो जाता है। अन्यथा प्रत्यक्षप्रमारूप फल की सिद्धि न होने पर इन्द्रियार्थसन्निकर्षजस्व को असिद्धि हो जायेगी, कयोंकि इन्द्रियार्थसनिकर्ष अतीन्द्रिय होने से प्रत्यक्ष का विषय तो है नहीं, अपरोक्षानुभवत्वरूप जाति के द्वारा उसकी अनुभिति होती है। इसलिये भासर्वज्ञ का कथन है कि जैसे 'योऽयं शुकलो गच्छति स गौः'. 'यस्योपरि अयं छत्री पुरुषो दृश्यते, सोऽश्वः' इस्यादि शब्दप्रयोग कर देने पर भी अनन्य. साधारण गोत्वादि जाति को हो गौ का लक्षण माना जाता है, क्योंकि गमनक्रिया। विशिष्ट शुकल गुणवाली वस्तु गो से भिन्न पुरुषादिवस्तु भी हो सकती है। इसी प्रकार चक्षुरादि इन्द्रिय तथा घटादि अर्थ का सम्बन्ध होने पर 'घटोऽयम्' इत्याकारक जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है, ऐसा कथन करने पर भी सन्निकर्षजत्वेन उपलक्षित अपरोक्षानुभवत्र को ही प्रत्यक्ष का लक्षण मानना होगा, क्योंकी वही लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति दोष से रहित है। अतः इन्द्रियार्थसंनिकर्ष जन्यत्व को प्रत्यक्ष प्रमा का लक्षण स्वीकार नहीं किया जा सकता।' न्यायसूत्रकारकृत लक्षण का प्रयोजन यदि अपरोक्षानुभवत्व ही प्रत्यक्ष प्रमा का लक्षण है, तो सूत्रकारने साक्षात् इस लक्षण का कथन न कर इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्यत्वरूप उपलक्षण के द्वारा उसका बोधन क्यों किया, इस प्रश्न का समाधान करते हुए भासर्वज्ञने कहा है कि प्रत्यक्ष के योगिप्रत्यक्ष व अयोगिप्रत्यक्ष इन दो भेदों का उपपादन करने के लिये प्रत्यक्षप्रमो का अपरोक्षानुभवत्वरूप लक्षण न कर इन्द्रियासंनिकर्षोत्पन्न ज्ञान यह लक्षण किय है। क्योंकि यह लक्षण योगप्रत्यक्षभिन्न अस्मदादिप्रत्यक्ष का ही है, अयोगिप्रत्यक्ष ही इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से उत्पन्न होता है । योगिप्रत्यक्ष तो बिना इन्द्रियार्थमनिकर्ष के भी होता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि प्रत्यक्ष योगिप्रत्यक्ष व अयोगप्रत्यक्ष भेद से द्विविध है। अपरोक्षोनुभवत्वरूप लक्षण उभयसाधारण है। इसीलिये उसके आगे दो भेद बतलाये गये हैं। प्रत्यक्षप्रमा के अपरोक्षानुभवत्त्वजातिमत्त्वरूप लक्षण का परित्याग कर सूत्रकार द्वारा 'इन्द्रियार्थसनिकर्षोत्पन्नं ज्ञानम्' इत्यादि लक्षण करने का अन्य कारण यह भी है कि बौद्ध क्षणभंगवाद की सिद्धि के लिये प्रत्यक्ष में इन्द्रियार्थसंनिकर्ष को कारण नहीं मानते, क्योंकि इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध मानने पर पदार्थों की स्थिति दो या तीन क्षणों तक अवश्य माननी होगी और इस प्रकार क्षणभंगवादसिद्धान्त उपपन्न नहीं होगा । अतः इन्द्रिय र्थसंन्निकर्ष मानने में बौद्धोंकी प्रतिपत्ति है। इस विप्रतिपत्ति का प्रदर्शन कर परीक्षा द्वारा उस विप्रतिपत्ति का निराकरण करने के लिये भी यह लक्षण किया गया है। 1. न्यायभूषण, पू ९३. 2. किमर्थ तर्हि तदेवा परोक्षानुभवत्वं न साझादुक्त मति ? प्रत्यक्षभेदज्ञानाथ' यदस्मदादिप्रत्यक्ष तदिन्द्रियाथ संनिकर्षनमेवेति वक्ष्यामः । -न्यायभूषण, पृ. ९४ 3. न्यायभूषण, पृ. ९४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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