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प्रत्यक्षभेद निरूपण
प्रत्यक्षप्रमाण के लक्षण के निरूपण के अनन्तर भासर्वज्ञने प्रत्यक्ष भेदों का निरूपण किया है । उनके अनुसार प्रत्यक्षप्रमाण योगिप्रत्यक्ष तथा अयोगिप्रत्यक्ष भेद से द्विविध है ।" प्रकारान्तर से भी प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद हैं- एक निर्विकल्पक तथा दूसरा सविकल्पक | उन भेदों का 'न्यायसार' में ग्रन्थकार ने आगे उल्लेख किया है । 'तद् द्विविधम्, योगिप्रत्यक्षम्, अयोगिप्रत्यक्षं चेति' इस भेदनिरूपणपरक वाक्य में 'च' पद के द्वारा उन भेदों का भी संग्रह कर लिया गया है, ऐसा उन्होंने स्वोपज्ञ व्याख्या भूषण में स्पष्ट कहा है । " योगिप्रत्यक्ष विशिष्ट और प्रकृष्ट है, अतः उसका उद्देश्य यद्यपि अयोगिप्रत्यक्ष से पहिले किया गया है, तथापि सामान्यजनों से सम्बद्ध अयोगिप्रत्यक्ष की सिद्धि होने पर ही उसके दृष्टान्त के बलसे योगिप्रत्यक्ष को सिद्धि हो सकती है अतः अयोगिप्रत्यक्ष का निरूपण पहले किया गया है । "
न्यायसार
अयोगिप्रत्यक्ष
प्रकाश, देश, काल तथा धर्म आदि निमित्तों से इन्द्रिय तथा अर्थ के संयोग, संयुक्तसमवायादि सम्बन्धविशेष से स्थूल अर्थ की ग्राहक इन्द्रियां अयोगिप्रत्यक्ष प्रमाण कहलाती हैं । यहां प्रकाश से प्रदीपादिप्रकाश तथा अभीष्ट इन्द्रिय के साथ मनःसम्बन्ध का ग्रहण है । देश पद से अव्यवहित, पुरोत्रर्ती देश का तथा काल पद से वर्तमान आदि काल का ग्रहण है । प्रदीपादि के अतिरिक्त धर्म-अधर्मादि भी प्रत्यक्ष के निमित्त हैं । इष्ट पदार्थ के ज्ञानमें धर्म निमित्त होता है । इन कारणों के अतिरिक्त महत्त्व, उद्भूतत्त्र, ईश्वरेच्छा आदि निमित्तों का भी आदि पद से ग्रहण है । प्रत्यक्ष प्रमा में इन्द्रिय साधकतम ( प्रकृष्ट साधन ) अर्थात् करण है. शेष कारण हैं । 'साधकतमं करणम् इस पाणिनीय सूत्र के अनुसार क्रियासिद्धि में प्रकृष्ट उपकारक को करण कहते हैं और स्वव्यापार के बाद क्रिया की अवश्यंभाविनी सिद्धि ही करण की प्रकृष्टता है । प्रकृत में इन्द्रियां इन्द्रियार्थसंनिकर्ष रूप व्यापार के बाद प्रत्यक्षप्रमारूप क्रिया को अवश्य उत्पन्न कर देती हैं, अतः वे करण कहलाती हैं । इसीलिये 'व्यापारवदसाधारणं कारणं करणम्' ऐसा करण का लक्षण किया गया है ।
' अर्थग्राहकम् ' इतना मात्र कह देने पर तो परमाण्वादि अर्थो में प्रत्यक्षता की प्रसक्ति होगी, अतः स्थूल पद दिया गया है । यहां परमाणु तथा द्वयणुक रूप अर्थ की
1. न्यायसार, पृ. २
2. च शब्दात्सविकल्पनिर्विकल्पकभेदेनापि द्विविधमिति प्रत्यक्षम् । - व्यायभूषण, १.१०१. 3. न्यायभूषण, पृ. १०२.
4. तत्रायोगिप्रत्यक्ष प्रकारदेिशका लधर्माद्यनुग्रहादिन्द्रियाथ 'सम्बन्धविशेषेण स्थूलार्थ प्राहकम् |
- न्यायसार, पृ. २
5. तर्कसंग्रह, पृ. ३८
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