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________________ ४४ भ्यायसार भासर्वज्ञ को तीन प्रमाण मान्य हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम, न इनसे न्यून और न अधिक । अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत उपमानादि का उन्होंने इन तीन प्रमाणों में ही अन्तर्भाव कर दिया है । प्रत्यक्षकप्रमाणवादी चार्वाक के मत का खण्डन चार्वाकमतानुसार प्रत्यक्ष से भिन्न अनुमान प्रमाण न मानने पर इतरव्यावृत्ति अथवा व्यवहार लक्षण का प्रयोजन होता है - इस सिद्धान्त का व्याकोप होगा, क्योंकि इतरव्यावृत्ति व व्यवहार की सिद्धि अनुमान द्वारा ही होती है तथा विप्रतिपन्न, अप्रतिपन्न तथा संदिग्ध व्यक्तियों के बोधार्थ प्रेक्षावान् की प्रवृत्ति भी नहीं होगी, क्योंकि परपुरुषगत विप्रतिपत्ति, अप्रतिपत्ति तथा सन्देह के ज्ञान के बिना उनका बोधन संभव नहीं और उनका ज्ञान उनके वचन, चेष्टादि लिंगों के द्वारा अनुमेय ही है । अतः अनुमान को प्रमाण मानना आवश्यक है। प्रमाणसंप्लव तथा प्रमाण विप्लव 'त्रिविधं प्रमाणम्' इस वाक्य में प्रमाण शब्द में एकवचन का प्रयोग कहींकहों प्रत्यक्षादि तीनों प्रमाणों का विषय एक होता है, इस प्रकार प्रमाणसंप्लव का बोधन करने के लिये किया गया है । जैसे, अतिदूरस्थ पर्वतादि प्रदेश में आप्त. वचन के द्वारा मानव को अग्नि का ज्ञान होता है । वहीं पर कुछ पाप्त आने पर पर्वत में धूम को देखकर अनुमान द्वारा भी अग्नि का ज्ञान करता है तथा अतिसमीप पहुंचकर वह पर्वत-प्रदेश में प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा भी अग्नि का ज्ञान कर लेता है । इस प्रकार पर्वतप्रदेश में अग्नि का ज्ञान प्रत्यक्षादि तीनों प्रमाणों से होने से यहां तीनों प्रमाणों का संप्लव है ।' किन्तु 'प्रत्यक्षमनुमानमागमः' में तीनों प्रमाणों का व्यस्तरूप से अभिधान किया है। उससे ग्रन्थकार यह ध्वनित कर रहे हैं कि कहीं-कहीं पर तीनों प्रमाणों का संप्लव न होकर उनकी व्यवस्थिति अर्थात् पृथक्-पृथक् विषयता भी होती है। जैसे-'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' इस श्रुतिवाक्य में अग्निहोत्र के द्वारा प्राप्तव्य स्वर्ग को ज्ञान न प्रत्यक्ष से होता है और न अनुमान से, क्योंकि स्वर्ग के लोकान्तरस्थ तथा शरीरान्तर द्वारा प्राप्य होने से वह चक्षुरादिरूप प्रत्यक्षप्रमाण को विषय नहीं है तथा उसके कार्य का यहां प्रत्यक्षज्ञान न होने से अनुमान प्रमाण का भी विषय नहीं है। किन्तु श्रुतिरूप आगम प्रमाण के द्वारा ही अग्निहोत्रसाध्य स्वर्ग का ज्ञान होता है । मेघगर्जना सुनने पर उससे मेघ का ज्ञान न चक्षुरादिरूप प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा ही होता है और न किसी आप्तवचनरूप आगम प्रमाण से, अपि तु 1 न्यायसार, पृ. २. 2 न्यायभूषण, पृ ८१-८२. 3 न्यायभूषण, पृ. ८२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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