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________________ परिचय इसीलिए न्यायशास्त्र के आधारस्तम्भभूत नैयायिकों में उनकी गणना की गई है। न्यायशास्त्र में नूतन और क्रान्तिकारी विचारधारा प्रवाहित करने के कारण उनके व्यक्तित्व की यह विशेषता व्यक्त होती है कि वे रूढिवादी नेयायिक नहीं थे, उनकी अपनी स्वतन्त्र विचारधारा थीं। प्राचीन आचार्यों के प्रति श्रद्धा रखते हुए भी उन्होंने 'बाबाबाक्यं प्रमाणम्' इस रूप में अपरीक्षणपूर्वक उनका ग्रहण नहीं किया, जैसाकि निम्न उद्धरण से स्पष्ट है :-- "सूत्रकृतैव खल्वेवमुपदिष्टत्वादिति चेत्, न खलु वै सूत्रकारनियोगभयात्पदार्थाः स्वधर्म हातुमर्हन्ति । यदि चाविचारितमेव सूत्रकारवचः प्रमागं, परीक्षासूत्राणां ताह वयथ्यं स्यात् ।" शुद्ध नैयायिक : न्यायभाष्यकार तथा उनके अनुयायी सभी नैयायिकों ने वैशेषिक दर्शन के सिद्धान्तों का कोई विरोध नहीं किया है, अपितु उनको यथावत् अपनाया है । किन्तु आचार्य भासर्वज्ञ ने वैशेषिक-शास्त्र के सिद्धांतो का विस्तारपूर्वक खण्डन किया है । वे शुद्ध नैयायिक थे । उनका उद्देश्य था-न्यायशास्त्र की व्याख्या । अतः वैशेषिक शास्त्र से विरोध को वे दोष नहीं मानते, जैसा कि उन्होंने स्पष्ट कहा है 'न्यायशास्त्रं च व्याख्यातुं वयं प्रवृत्तास्तेनास्माकं वैशेषिकतन्त्रेण विरोधो न दोषाय । अतः हम कह सकते हैं कि भासर्वज्ञ न्यायशास्त्र के रूढिवादी व्याख्याकार नहीं, प्रत्युत स्वतन्त्र चिन्तक और समालोचक नैयायिक थे । कृति-परिचय: आचार्य भासर्वज्ञने कुल चार प्रन्थों की रचना की। उनके नाम इस प्रकार हैं(१) नित्यज्ञानविनिश्चय (२) गणकारिका (३) न्यायसार और (४) न्यायभूषण । १. नित्यज्ञानविनिश्चय यह ग्रन्थ अप्राप्य है। इसका उल्लेख आचार्य भासर्वज्ञ ने न्यायभूषण में किया है-' यदत्रानुक्तं परोक्तचोद्यप्रतिसमाधानं प्रतिपक्षबाधनं च तत् नित्यज्ञानविनिश्चये द्रष्टव्यम् ।" इससे यह प्रतीत होता है कि न्यायभूषण की रचना से पूर्व भासर्वज्ञ ने 'नित्यज्ञानविनिश्चय' नामक ग्रन्थ की रचना की थी जो सौगतसिद्धान्तरूप पर्वत के लिए वज्रपात की तरह था । J. दुर्मीताश्रमवेदिकाढरस्तम्भानमून् शंकर--- न्यायालहरणत्रिलोचनवचस्पत्याहयान् हेलया । उन्मूल्य क्षणभंग एष विहितो यत्पुण्यमाप्तं मया तेन स्तात् परपारगस्त्रिभुवने ज्ञानधियोऽयं जनः ।। --ज्ञानश्रीनिबन्धावलि, पृ. १५९. 2. न्यायभूषण, पृ. १८. 3 वही, पृ. १९३. 4. न्यायभूषण, पृ. १६६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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