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________________ न्यायसार २. गणकारिका पाशुपत पूत्र और पळवार्थ भाष्य को तरह पगारका भी लकुलोश पाशुपतमत का प्रमुख प्राथ है। गगहारिक की रत्नटीका में पाशुपत-मत के अन्य ग्रन्थों का भी उल्लेख प्राप्त होता है। सर्वदर्शनसंग्रह में अन्य दर्शनों की तरह पाशुपतमत का स्वरूप भी वर्णित है। गणकारिका में कुल आठ कारिकाएँ हैं जिनकी रत्नटीका में विस्तार से व्याख्या को गई है । इन आठ कारिकाओं में गुरुस्वरूप आदि का निरूपण किया गया है। इस तथ्य की और संकेत करते हुए सर्वदर्शनसंग्रहकार ने भी कहा है -'गुरुस्वरूपं गणकारिकायां निरूपितम्'। यह ग्रन्थ गायकवाड ओरियण्टल सीरीज के अन्तगर्त चिमनलाल डी. दलाल महोदय के सम्पादकत्वमें सन १९६६ में प्रकाशित हो चुका है। ३. न्यायसार न्यायदर्शन में सर्वप्रथम सूत्रानुसारी ब्याख्यापद्धति अपनायी गई और सौगत. सिद्धान्त के खण्डन हेतु उस पद्धति के अनुसार न्यायभाष्य, न्यायवार्तिक, तात्पर्यटीका, न्यायभाष्यवातिक टीकाविवरणपजिका आदि ग्रन्थ लिखे गये। सूत्रानुसारी व्याख्या. पद्धति को छोड़कर स्वतन्त्र ग्रन्थ-रचना की पद्धति प्रारम्भ में नहीं थी, परन्तु दसर्वी शताब्दी में न्यायशास्त्र में स्वतन्त्र रूप से प्रकरण ग्रन्थों की रचना को जाने लगी। न्यायदर्शन में आचार्य भासर्वज्ञ को इस शैली का प्रवर्तक कहा जा सकता है। उनके बाद में अन्य नैयायिकों तथा वैशेषिकों ने भी प्रकरण ग्रन्थ लिखे । 'प्रकरण' एक पारिभाषिक शब्द है जिसको लक्षण पराशर उपपुराण में इस प्रकार किया गया है 'शास्त्रैक देशप्तम्बद्धं शास्त्रकार्यान्तरे स्थितम् । आहुः प्रकरणं नाम ग्रन्थभेदं विपश्चित ॥' । अर्थात् जिस ग्रन्थ में किसी शास्त्र के एक अंश का प्रधानतया प्रतिपादन होता है और प्रयोजनानुसार अन्य शास्त्र के उपयोगी अंश का भी समावेश कर किया जाता है. उसे प्रकरणग्रन्थ कहते हैं। न्यायवैशेषिक के प्रकरण प्रन्थों के चार विभाग किये जा सकते हैं--- (१) प्रथम प्रकार के वे प्रकरण हैं जिनमें प्रधानतया प्रमाण और गौण रूप से प्रमेय, संशय आदि पन्द्रह पदार्थो का वर्णन किया गया है। (२) दूसरे प्रकार के वे प्रकरण ग्रन्थ हैं जिनमें न्यायदर्शन के प्रमाण, प्रमेय आदि 1. तत्क्रमश्च संस्कारकारिकायां दृष्टव्यः ।-गणकारिका, रत्नटीका, पृ. ९. 2. सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. ७१ से ७७ तक 3. वही, पृ. ७१. 4. प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में म. म. विद्याभूषण-सम्पादित न्यायसार के संस्करण का मुख्यतया उपयोग किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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