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न्या. सार
किन्तु अक्षपादादि द्वारा द्विजों को दीयमान रत्न निरन्तर बढ़ता रहता है, क्योंकि वह उनमें सुतीक्ष्ण बुद्ध (तार्किकप्रज्ञा) का आधान करता है और तीक्ष्ण बुद्धि से सम्पन्न होकर वे अन्यान्य ग्रन्थों की रचना करते हैं । तथा प्रमाणादि पदार्थों के तत्त्वज्ञान उत्पन्न सम्यग् ज्ञान द्वारा मिध्याज्ञान का नाश हो जाने से दुःखाभावविशिष्ट परमानन्दरूप मुक्ति की भी प्राप्ति होती है । अक्षपादादि पूज्य गुरुओं के द्वारा प्रादुर्भावित न्यायरत्न को मैंने भी आचार्य ( अपने गुरु ) की सेवा द्वारा प्राप्त किया । स्वल्पाक्षर पदों से उसका निबन्धन कर संसार से मुक्ति प्राप्त करने के लिए श्रेष्ठ अधिकारियों को प्रदान किया अर्थात् उसका वितरण किया ।
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इन श्लोकों में 'गुरुभिः' पद से न्यायशास्त्र के पूज्य प्राचीन आचार्य अक्षपादादि का ग्रहण है, जैसाकि इत्येवं तत्पूर्वक पदमेव केवलमनुमानलक्षणक्षम मिति गुरवो वर्ग याञ्चक्रुः " जयन्त के इस कथनमें 'गुरवः' पदसे न्यायशास्त्र के प्रवर्तक प्राचीन आचार्यों का ग्रहण किया है । जयसिंह सूरि ने 'गुरुभि' पद की 'अध्यापकैः " इस व्याख्या के द्वारा भासर्वज्ञ के अध्यापकों का ग्रहण किया है, वह समुचित नहीं, क्योंकि भासर्वज्ञ ने अपने गुरु का उल्लेख उत्तरश्लोक में 'आचार्यमाराध्य' आचार्यपद के द्वारा किया है । यदि भासर्वज्ञ गुरुओंने भी न्यायरत्न का प्रादुर्भाव किया होता, तो उस न्यायरत्न की उन गुरुओं द्वारा प्राप्ति हो जाने पर तद्भिन्न आचार्य की आराधना से उसकी प्राप्ति का उल्लेख नहीं होता और वस्तुतः न्यायरत्न का प्रारम्भिक प्रदान अर्थात् आविर्भाव भासर्वज्ञ के गुरुओं द्वारा न होकर उनके पूर्ववर्ती पुज्य न्यायसूत्रकार, भाष्यकार, वार्तिककारादि से ही हुआ है । इसलिए 'गुरुभिः' इत्याकारक बहुवचन का प्रयोग किया गया है । गुरुओं ने रत्न ( न्यायरत्न) के प्रदान द्वारा समुद्रों को जीत लिया है, इस प्रकार रत्नप्रदान के द्वारा समुद्र का गुरुओं से साम्य बतलाया गया है । वह साम्य न्यायशास्त्र के उद्भावक अक्षपादादि आचार्यो के साथ ही उपपन्न होता है, क्योंकि जैसे समुद्र अनेक रत्नों का उद्भवस्थान है, उसी प्रकार अक्षपादादि पूज्य पूर्वगुरु ही न्यायशास्त्ररूपी रत्न के उद्भावक हैं, न कि भासर्वज्ञ के अध्यापक । यद्यपि 'मदीयैः' विशेषण से यह सन्देह अवश्य होता है कि यहां भासर्वज्ञ सम्बन्धित गुरुओं का बोध है और अक्षपादादि भी परम्परया भासर्वज्ञ से सम्बन्धित हैं ही, अतः 'गुरुभिः' से अक्षपादादि आचार्यों का ग्रहण करने में कोई बाधा नहीं है ।
व्यक्तित्व
स्वतन्त्र चिन्तक :
महाम्बुधिकल्प प्रौढग्रन्थ न्यायभूषण उनके व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करने के लिए स्वच्छ आदर्शतुल्य है । वे न्यायशास्त्र के प्रौढ़ और उद्भट विद्वान् थे ।
1. न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. ११५.
2. न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. २६४.
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