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________________ षष्ठ विमर्श आगमप्रमाणनिरूपण यद्यपि वैदिक मतानुसार वेदों का जैसा प्रामाण्य माना जाता है, वैसा प्रत्यक्ष आदि का भी नहीं | अद्वैत वेदान्तियों का तो यहां तक कहना है कि जैसे बौद्धसिद्धान्त मे निर्विकल्पात्मक स्वलक्षण तत्व को विषय करने के कारण प्रत्यक्ष ही परमार्थतः प्रमाण है और अनुमान अविसंवादी अर्थमात्र का ग्राहक होने के कारण व्यवहारतः प्रमाण है, वैसे ही असन्दिग्ध, अनधिगत, अबाधित, अर्थभूत ब्रह्म तत्त्व को विषय करने के कारण महावाक्यात्मक शब्दप्रमाण ही एकमात्र पारमार्थिक दृष्टि से प्रमाण है । उससे भिन्न प्रत्यक्षादि पांचों प्रमाणों में व्यवहारसिद्धि के लिये व्यवहारतः प्रामाण्य है, परमार्थतः नहीं, क्योंकि उनका प्रमेय पदार्थ ब्रह्मज्ञान के द्वारा बाधित हो जाता हैं । अतः वे बाधितार्थविषयक होते हैं । केवल तद्वति तत्प्रकारकत्वरूप सांव्यवहारिक प्रमाण्य उनमें माना जाता है । 2 34 जैमिनि धर्म में वेदों का प्राधान्य और प्रामाण्य स्वीकार करते हुए कहते हैं'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः " | शबर स्वामी भी शब्द का अगाध सामर्थ्य मानते हैं'चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्मं व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थं शक्नो त्यवगमयितुं नान्यत्किंच नेन्द्रियम् ' ।" यहां 'चोदना ' पद शब्दमात्र का बोधक है, जैसा कि कुमारिल भट्ट कहते हैं- 'चोदनेत्यब्रवीच्चात्र शब्दमात्रविवक्षया 15 स्मृतिकार 'श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः " - ऐसा उद्घोष करते हुए श्रुतिप्रामाण्य पर पूर्ण विश्वास प्रकट करते हैं । अतः वैदिक दार्शनिकों की कक्षा में प्रविष्ट नैयायिकों को भी शब्द का प्राधान्य स्वीकार करके शब्द प्रमाण का सर्वप्रथम निरूपण करना चाहिए था, तथापि आन्वीक्षिकी - शास्त्र के प्रवर्तक महर्षि अक्षपाद ने 'प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि 5 इस सूत्र के द्वारा अपने प्रमाणों का क्रम निर्दिष्ट कर दिया है । अतः न्यायसूत्रपरिवार के किसी भी प्रकरण या शास्त्र को यह सोचने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि हम किस प्रमाण को प्रधान तथा किसे अप्रधान मानें । सूत्रानर्दिष्ट क्रम के अनुसार ही प्रायः सभी आचार्यो ने प्रमाणों का निरूपण किया है । 1. जमिनिसूत्र, १1१/२ 2. मीमांसादर्शन, (शावर भाष्यसहित ), पृ. ३ 3. मीमांसा लोकवार्तिक, चोदनासूत्र, का. ७ 4. मनुस्मृति, २1१२ 5. न्यायसूत्र, १1११३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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