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कथानिरूपण तथा छल...
१४९ ग्रहण किया गया है, क्यों के कुछ शुष्क तार्किक सिद्धान्तविरुद्ध भी बाद कर बैठते हैं। जैसे-ईश्वरज्ञान अनित्य है, विभु द्रव्य का विशेष गुण होने से, ऐसे सिद्धान्त - विरुद्ध वाद का निषेध करने के लिये सूत्र में सिद्धान्ताविरुद्ध पद दिया गया है ।। इसीलिये मनु ने कहा है कि वेदशास्त्राविरोधी तर्क' ही काम में लेना चाहिये, न कि शास्त्रविरुद्ध ।
इसी प्रकार स्वपक्षसाधन, प्रतिपक्षदूषण, साधनसमर्थन, दूषणसमर्थन, शब्द. दोषवर्जन (निरर्थक, अपार्थक अप्रतीतप्रयोग व अतिद्रुतोच्चारणादिदोषपरित्याग) इन पांच अवयवों से युक्त वाद कथा होनी चाहिये, जिससे अभीष्ट अर्थ की सिद्धि हो सके । एतदर्थ पंचावयवोपपन्न पद दिया गया है। अथवा वाद दो प्रकार का होता है-(१) शास्त्रस्वीकारपूर्वक तथा (२) उससे विपरीत । शास्त्र को स्वीकार कर जो वाद कथा की जाती है, वह वाद कथा सिद्धान्त से अविरुद्ध होनी चाहिये और शास्त्र को स्वीकार न करके जो वादकथा को जाती है, वह पंचावयवययुक्त होनी चाहिये, उसमें शास्त्रविरोध की उद्भावना दोष नहीं माना जाता, किन्तु जिससे पंगवयवोपपन्नता में कोई विरोध आता हो, उसी को वहां निग्रहस्थान माना जाना चाहिए ।
वीतराग कथा दो प्रकार की होती है-एक प्रतिपक्षयुक्त तथा दूसरी प्रतिपक्ष रहित, जैसाकि प्रतिपक्षहीनमपि वा प्रयोजनार्थमर्थित्वे ' सूत्र में बतलाया गया है। इस प्रकार वीतरागकथा के दो भेद मानने पर कथा के भेद चार हो जाते हैं न कि तीन । ऐसा होने पर भी उद्देशसूत्र में जो तीन भेद बतलाये गये हैं, वे कथा की विशेष संज्ञाओं को लेकर हैं । भासर्वज्ञ द्वारा किये गये कथा के इस विभाजन को निम्नलिखित रेखाचित्र से भी स्पष्ट किया जा सकता है:
कथा
2. विजिगीषुकथा
वीतरागकथा (वाद)
2. 1. सप्रतिपक्ष प्रतिपक्षरहित जल्प
वितण्डा (प्रतिपक्षहीनमपि वा प्रयोजनार्थमर्थित्वे
न्या.सू. ४।२।४९]
इस सूत्र से समर्थित है।) वीतरागवितण्डा विजिगीषुवितण्डा 1. न्यायभूषण, पृ. ३३१ 2 आर्ष धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना ।
यस्त णानुसन्धत्ते स धर्म वेद नेतरः।। -मनुस्मृति, १२/१ . ६ . 3. न्यायभूषण, पृ. ३३१-३३२ 4. न्यायसूत्र, ४/२/४९
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