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________________ १४८ न्यायसार इस प्रकार न्यायभाष्य के अनुसार वादसूत्र की व्याख्या प्रस्तुत कर ग्रन्थकार अपने मत से सूत्र की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि सूत्र में साधन पद का अर्थ स्वपक्षसिद्धि के लिये उपादीयमान प्रत्यक्षादि प्रमाणों में से कोई प्रमाण है तथा प्रतिपक्ष का निषेध करने के लिये प्रत्यज्ञाद्यन्यतम प्रमाण का ग्रहण उपालम्भ पद का अर्थ है । प्रमाण अर्थात् अनुमान के द्वारा निश्चित सामर्थ्य युक्त तथा तर्क के द्वारा प्रतिषेधसामर्थ्ययुक्त साधन और उपालम्भ का ही नैयायिक को वादकथा में प्रयोग करना चाहिये । एतदर्थ प्रमाण व तर्क का ग्रहण सूत्र में किया गया है । सूत्र में 'सिद्धान्ताविरुद्ध' पद का उपादान अपसिद्धान्तरूप निग्रहस्थान के संग्रह के लिये तथा 'पंचावयवोपपन्न' पद पांच हेत्वाभासों तथा अधिक और न्यून -इन निग्रहस्थानों के संग्रह के लिये है अर्थात् अपसिद्धान्तादि आठ निग्रहस्थानों का प्रयोग वादकथा में भी अनुमत है, ऐसा न्यायभाष्यकार का अभिमत है । इस विषय में भासर्वज्ञ का कथन है कि अपसिद्धान्तादि आठ निग्रहस्थानों के उद्भावन से यदि वीतरागिता की निवृत्ति नहीं होती, तो अन्य निग्रहस्थानों के उद्भावन से कैसे हो सकती है? तथा अपसिद्वान्तादि निग्रहस्थानों की वादकथा में अभ्यनुज्ञा मानने पर प्रतिज्ञाहानि, अपार्थक, निरर्थक इत्यादि निग्रहस्थानों का प्रयोग भी वादकथा में दोष नहीं कहलायेगा । यदि यह कहा जाय कि निरर्थक, अपार्थक आदि निग्रहस्थानों का केवल त्याग के लिये वादकथा में उद्भावन किया जाता है, अन्य के निग्रह के लिये नहीं. तो अपसिद्धान्तादि निग्रहस्थानों का उद्भावन भी वादकथा में त्याग के लिये होता है, न कि गुर्वादि के निग्रह के लिये । अतः सिद्धान्ताविरुद्ध पद से अपसिद्धान्तरूप निग्रहस्थान की ओर पंचावयवोपपन्न पद से पंच हेत्वाभास और न्यून तथा अधिक - इन निग्रहस्थानों के उद्भावन की अनुमति वादकथा में मानना संगत नहीं, किन्तु सिद्धान्ताविरुद्ध तथा पंचावयवोपपन्न इन दोनों पदों का ग्रहण उदाहरण के लिये हैं। अर्थात् सिद्धान्ताविरुद्ध पद से अपसिद्धान्त की अभ्यनुज्ञा और पंवावयवोपपन्न पद से पञ्चहेत्वाभासादि निग्रहस्थानों की अभ्यनुज्ञा वादकथा में दिग्दर्शन के लिये है। अन्य छल-जाति-निग्रहस्थान--इन सभी की उद्भावना वादकथा में की जा सकती है। इतना होने पर भी जल्प तथा वितण्डा कथा से वादकथा का यही भेद है कि वादकथा में छल-जाति-निग्रहस्थानों का प्रयोग त्याग के लिये है और उनका परित्याग तभी बन सकता है जब उनका ज्ञान हो और जल्प तथा वितण्डा में छलादि का प्रयोग जय-पराजय के लिये किया जाता है। इसीलिये जल्पलक्षणसूत्र में छल, जाति, निग्रहस्थानों के प्रयोग का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। अथवा वादकथा सिद्धान्ताविरुद्ध तथा पंचावयवोपपन्न होनी चाहिये इस बात का शिष्यों को ज्ञान कराने के लिये वादकथा में इन तीनों पदों का 1. न्यायभूषण, पृ. ३३० 2. न्यायभार, 1/२/1 3. न्यायभूषण, पृ. ३३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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