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कथानिरूपण तथा छल...
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एक धर्मी में विरुद्ध धर्मों की स्थितिरूप पक्ष-प्रतिपक्षता तीनों ही कथाओं में बनती है। अतः जल्प तथा वितण्डा से वाद का भेद बतलाने के लिये सत्र में 'प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः' यह पद दिया गया है । वैतण्डिक को एक पक्ष स्वीकृत होने पर भी न तो वह प्रतिज्ञावाक्य के द्वारा अपने सिद्वान्त की स्थापना करता है
और न प्रमाण तथा तर्क के द्वारा उसकी पुष्टि करता है। जल्पकया में यद्यपि स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष-निराकरण दोनों रहते हैं, तथापि उसमें उनका प्रतिपादन केबल प्रमाणों और तर्क के द्वारा ही नहीं किया जाता जबकि वाद में प्रमाणों और तर्क के द्वारा ही यह कार्य होता है । अतः 'प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः' पद देने से जल्पकथा की निवृत्ति हो जाती है।
सूत्रकारकृत वादलक्षण में 'पंचावयवोपपन्नः' विशेषण दिया गया है। पंचावयव पद से प्रतिज्ञादि पांच अवयववाक्यों का ग्रहण है जो कि अनुमान प्रमाण के अंग हैं । इस प्रकार पंचवाक्यवोपपन्न पद से ही प्रमाणोपपन्न अर्थ का लाभ हो जाने पर भी यहां 'पंचावयवोपपन्न' पद 'वाद' प्रतिज्ञादि अवयवों से युक्त होता है, इतने हो अर्थ का बोधक है न कि वे प्रतिज्ञादि अवयव कोई प्रमाण या प्रमाण के अंग हैं, इस अर्थ का बोधक । अतः वादकथा को प्रमाणयुक्त बतलाने के लिये 'प्रमाणोपपन्नः' पद का उपादान सार्थक है। अर्थात् वाद में निर्दिष्ट पंचावयव प्रमाण के रूप में या प्रमाणावयव के रूप में ही गृहीत हैं। क्योंकि वादकथा वीतरागकथा है और वीतराग पुरुष परवंचनार्थ कथा में प्रवृत्त नहीं होते हैं, अतः वादलक्षण में प्रमाणोपपन्न' पद की आवश्यकता है। दूसरी बात यह भी है कि प्रतिज्ञादि अवयव केवल अनुमान प्रमाण के अंग होते हैं, प्रत्यक्षादि के नहीं । पंचावयवोपपन्न पद से अनुमान प्रमाण का लाभ हो जाने पर भी इतर प्रत्यक्षादि प्रमाणों का लाभ नहीं होता, इसलिये भी 'प्रमाणोपपन्नः' कहा गया है।
यद्यपि जल्प कथा में भी प्रमाणमूलत्वेन अज्ञात हेत्वाभासादि का प्रयोग नहीं होता है, तथापि प्रारम्भ में वह जिन हेत्वाभासों का प्रयोग करता हैं, उन्हे', 'यह हेतु सभीचीन है', यह जानकर उनका प्रयोग करता हुआ भी प्रतिवादी के द्वारा उन्हे दुष्ट सिद्ध किये जाने पर वह उन्हें दुष्ट ( असमीचीन ) जानता हुआ भी उनके समर्थन के लिये प्रवृत्त होता है, उनसे निवृत्त नहीं होता । किन्तु वादकथा में वादी प्रतिज्ञादि अवयवों में असमीचीनता का ज्ञान होने पर उनका प्रयोग नहीं करता । अपि च, जल्पकथा मे वादी अपनी पराजय देकर निश्चित पराजय की अपेक्षा सन्देहस्थिति उत्पन्न करने के लिये दुष्ट हेतुओं का प्रयोग करने से नहीं' चूकता । अवः सूत्र में प्रमाणोपपन्न' का उपन्यास किया गया है।
इसका दूसरा फल भी है कि वादी वादकथा में प्रतिज्ञादि अवयवों का प्रयोग न कर स्वतन्त्र प्रत्यक्षादि प्रमाणों से भी स्वपक्षसिद्धि और परपक्षखण्डन कर सकता है।
तर्कानुगृहीत स्वार्थानुमान का ही वाद कथा में प्रयोग करना चाहिने, न कि चार्वाकों की तरह स्वयं अनिश्चित स्वार्थानुमान का । एतदर्थ तर्क ग्रहण किया गया है।
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