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न्यायसार भासर्वज्ञ ने कथा के वादादि तीन भेद न मानकर प्रकारान्तर से उसके भेद किये हैं। उन्होंने पहिले कथा को वोतराग -- कथा तथा विजिगीषु-कथा - इन दो भागों में विभक्त किया है। तदनन्तर वीतरागकथा को वाद माना है तथा विजिगीषुकथा के जल्प और वितण्डा - ये दो भेद किये है। वीतराग-कथा दो वीतरागों की ही होती है और उनमेंसे एक पक्ष की स्थापना करता है तथा दूसरा उसका खण्डन, किन्तु इस खण्डन-मण्डन में विजय की इच्छा उद्देश्य नहीं रहता, अपितु तत्त्वनिश्चय उद्देश्य होता है । इसी आधार पर लोक में 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः' यह उक्ति प्रचलित है । भासर्वज्ञ ने यह भी माना है कि 'वाद' तीनों कथाओं का सामान्य नाम है, यह बात उन्होंने लौकिक व्यवहार को लेकर कही है, क्योंकि लौकिक व्यवहार में प्रत्येक कथा के लिये वाद शब्द का प्रयोग किया जाता है। किन्तु इस शास्त्र में 'वाद' शास्त्रसंकेतित संज्ञा है और इसका प्रयोग तत्त्व. निर्णय के लिये होने वाली वीतरागकथा में ही होता है।
.. दण्डक सूत्र में सामान्य कथा का निर्देश न करके उसके भेदों का ही निर्देश किया है। वाद, जल्प, वितण्डा भेद से त्रिधा विभक्त कथाभेदों में सर्वप्रथम वाद का निरूपण किया जा रहा है । 'प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पंचावय. वोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः '३ यह वाद का सौत्र लक्षण है। अर्थात् सिद्धान्त से अविरुद्ध, पंचावयव वाक्यों से युक्त तथा प्रमाण और तर्क के द्वारा जिसमें स्वपक्ष सिद्धि और परपक्ष का खण्डन किया जाता है, ऐसी कथा को वाद कहते हैं। सत्र में पक्ष-प्रतिपक्ष शब्द से एक ही धर्मी में विद्यमान दो विरुद्ध धर्मो का ग्रहण किया गया है। जैसे-'अनित्यः शब्दः, नित्यः शब्दः' । इस वाक्य में शब्दरूप एक ही धमी में विद्यमान नित्यत्व तथा अनित्यत्व धर्म का निर्देश है। एक धर्मी में स्थित दो धर्मों का विरोध उनका एक साथ न रह सकना ही है और वह विरोध लोक या शास्त्र में जिस प्रकार का देखा गया है, वैसा ही मानना चाहिये । जैसे-मूर्तत्व तथा अमूर्तत्व धर्मो की स्थिति कोलभेद से भी एक धर्मी में नहीं बन सकती, अर्थात् पृथिव्यादि मूर्तो में किसी भी काल में अमूर्तत्व नहीं रहता। अतः ये दोनों धर्म विरुद्ध धर्म कहलाते हैं। किन्तु घटादि पदार्थों में सत्त्व तथा असत्त्व धर्म की घटादि धर्मी में स्थिति विरुद्ध नहीं मानी जा सकती । भिन्न धर्मी में स्थित दो धर्मो का परस्पर विरोध कभी नहीं होता। जैसे-आत्मा नित्य है और
और बुद्धि अनित्य-इस वचन में नित्यत्व की स्थिति आत्मा में है और अनित्यत्व की स्थिति बुद्धि में। अतः भिन्नधमिस्थ विरुद्ध धर्मों का पक्ष प्रतिपक्ष नहीं माना जा सकता । अतः इसको कथा भी नहीं कह सकते। 1. न्यायसार, पृ. १५
वीतरागकथा वादसंज्ञकैवोच्यते न तत्र विशेषसंज्ञान्तरमस्ति । यथा विजिगीषुकथाबा बाद इति सामान्यसंज्ञा जल्प इति वितण्डेति च विशेषसोति । तत्र कथात्रयेपि बाद इति संज्ञा
व्यहारत: प्रसिद्धा, कथेति संज्ञा तु सूत्रतः प्रसिद्ध। ।-न्यायभूषण, पृ. ३२९ 3. न्यायसूत्र, १/२/१
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