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न्यायसार
अथवा कथा के भेद वाद--जल्प-वितण्डा-ये तीन ही हैं, क्योंकि प्रतिपक्षहीन वाद वितण्डा कथा ही है ।
विजिगीषुकथा :
विजिगीषु विजिगीषु के साथ लाभ, पूजा तथा ख्याति की इच्छा से अपनी जय तथा दूसरे की पराजय के लिये प्रवृत्त होता है, उसे विजिगीषुकथा कहते हैं। यद्यपि जय-पराजयमूलक तथा लाभादि की इच्छा से प्रवृत्त होने वाली कथा मोक्षमार्ग के विरुद्ध होने से उपयुक्त नहीं है, तथापि वह मुमुक्षु के लिये न्याज्य है, स्वविजय तथा परपराजय में प्रवृत्त संसारो के लिये तो उपादेय ही है । मुमुक्षु की मोक्ष की इच्छा से प्रवृत्त होता है न कि विजयकाम पुरुष । यदि वीतरोग मुमुक्षु भी विजिगीषु द्वारा आक्षेप किये जाने पर दूसरों के अनुरोध से इस कथा के परिहार में समर्थ नहीं है, तो वह भी विजिगीषु के साथ प्रतिवादी के अनुग्रह (मोक्षशास्त्रादि में श्रद्धोत्पादन) के लिये और ज्ञानांकुर की रक्षा के लिये उस कथा को कर सकता है । यह विजिगीषुकथा वादो, प्रतिवादी, समापति तथा प्राश्निक इन चारों अंगों से युक्त होती है । विजिगोषु-कथा जल्प, वितण्डा भेद से दो प्रकार की ही है।
जल्पनिरूपण जल्प का लक्षण सूत्रकार ने 'यथोक्तोपपन्नश्यछलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः' इस प्रकार किया है । सत्र में 'यथोक्तोपपन्नः' पद जल्प तथा वितण्डा कथा समस्तवादलक्षणों से युक्त होनी चाहिये-यह बतला रहा है। जल्प और वाद् के समस्त लक्षणों से युक्त होने पर भी छल-जाति-निग्रहस्थान आदि अंगाधिक्य के कारण जल्प, वितण्डा का वाद से भेद है, इसी बात को बतलाने के लिये सत्र में 'कलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भः' पद दिया है। वार्तिककार 'यथोक्तोपपन्नः' में एक उपपन्न पद का निर्देश ओर मान रहे हैं अर्थात् 'यथोक्तोपपन्नोपपन्नः । पद मान रहे हैं । तात्पर्य यह है कि वादकथा के जो अङ्ग जल्पकथा अङ्ग बन सकते हैं, उनसे युक्त तथा छल, जाति, निग्रहस्थान के द्वारा जिसमें स्वपक्ष-साधन तथा परपक्षखण्डन किया जाता है, ऐपी कथा को जल्प कहते हैं । यद्यपि छलादि के
1. न्यायभूषण, पृ. ३३२. 2 तत्त्वाध्ववसायसंरक्षणार्थ जल्पवितण्डे बीजप्ररोहसंरक्षणार्थ कण्टकशाखावरणवत् ।
-न्यायसूत्र, ४/२/५० 3 न्यायसार, पृ. १६ 4. न्यायसूत्र, १/२/२ 5. अथवा यथोक्तेनोप्रपन्नेनोपपन्नो यथोक्तोपपन्नोपपन्न इति
प्राप्ते गम्यमानत्वादेक-योपपन्नशब्दस्य लोपः, यथा गौ रथ इति ।-न्यायवार्तिक, ११२१२
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