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आगमप्रमाणनिरूपण
२०३ का सरलतया बोध नहीं हो सकता, यह जो अभिप्राय बतलाया गया है, यह भी व्यभिचारी है। क्योंकि अर्थापत्ति, संभव, अभाव, ऐतिह्य, चेष्टा आदि के पृथक् प्रामाण्य का निराकरण सूत्रकार ने किया है, किन्तु कही भी उनका लक्षण नहीं बतलाया । अतः जैसे इन प्रमाणों के अन्तर्भाव का ज्ञान बिना लक्षण के हो सकता है, उसा प्रकार उपमान के अन्तर्भाव का बोध भी बना लक्षण के हो सकता है।
इसी प्रकार प्रामाणान्तर में अन्तर्भाव किये जाने वाले अर्थापत्यादि प्रमाणों की परीक्षा तो सूत्रकार ने पूर्वपक्ष का उद्भावन करते हुए नहीं का, उपमान का हो क्यों की, इससे स्पष्ट होता है कि सूत्रकार को उपमान का पृथक् प्रामाण्य अभीष्ट है।
___ विभागसूत्र न्यूनाधिक संख्या का व्यवच्छेद करते हैं, यह नियम नहीं, जैसे कि ब्राणरसनचक्षुस्त्वक श्रोत्राणोन्द्रियाणि भूतेभ्यः '1 यह इन्द्रियविभागसूत्र इन्द्रियों की न्यून मंख्या का ही न्यवच्छेदक है, अधिक संख्या का नही । अतः मन भी षष्ठ इन्द्रिय मानी जाती है, उसी प्रकार 'प्रत्यक्षानुमानो. पमानशब्दाः प्रमाणानि' यह प्रमाणविभाग-सूत्र भी प्रमागों का अधिक संख्या का व्यवच्छेद करता है, न्यून संख्या का नहीं । अतः इस सूत्र का प्रमाण त्रित्व से विरोध नहीं है -भासर्वज्ञ का यह कथन भी उचित नही , क्यों. दृष्टान्त में इन्द्रियविभाग-सूत्र न्यून व अधिक दोनों संख्याओं का व्यवच्छेद करता है। वहां भूतोद्भूत भौतिक इन्द्रियों का पंवत्र बालाया गया है आर भौतिक इन्द्रियों घ्रागादि पाच ही हैं, न न्यून और न अधक । मन भौतिक इन्द्रिय नहीं है, अतः उसका लेकर आधक संख्या के व्यवच्छेद का व्यभिचार बतलाना नितान्त अमंगत है। अतः यह सिद्ध है कि विभागसूत्र न्यूनाधिकसख्याव्यवच्छेदक होता है। इसलिये प्रमाणावभागसूत्र भी प्रमाणों का न्यूनाधिक संख्या का व्यवच्छेद करता हुआ प्रमाणचतुष्ट्व का प्रतिपादन कर रहा है, न कि प्रमाणत्रित्व का ।
सूत्रकार ने 'उपमानमनुमान प्रत्यक्षेगाप्रत्यक्षसिद्धेः' के द्वारा उपमान के अनुमान में अन्तर्भाव की आशंका कर तथेत्युपमहारादुपमानसिद्धे विशेषः' अर्थात 'यथा गौस्तथा गवयः' इस प्रकार उपमान का उपसहार किया जाता है, तथा चायम्' अर्थात् 'पर्वतो वहानमान् ' इस रूप से अनुमान में जैसे पक्ष-धर्मताांद का कथन होता है, वैसे उपमान में नहीं होता, अतः उसका अनुमान में अन्तर्भाव नहो', इस प्रकार उपमान के अनुमान में अन्तर्भाव का निराकरण किया है, शब्द में अन्तर्भाव का नहीं । अतः शब्द प्रमाण में उपमान का अन्तर्भाव सूत्रकार को अभीष्ट है यह भासर्वज्ञ का कथन भी आवचारित साहसमात्र हो प्रतीत होता है, क्यों के नैयायिकों को मंज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञान उपमानप्रयोजनस्वेन अभीष्ट है और वह ज्ञान 'यथा गौस्तथा गवयः' इस वाक्य से हो नहीं सकता, क्यों क इस वाक्य का संकेत 'गवय में गोसादृश्य है' इस अथ में ही है न कि 'गवयापण्ड गवयपदवाच्य है' इस अर्थ में । अतः शब्दप्रमाण में अन्तर्भाव का उपपादन असभव होने से 1. न्यायसूत्र, १1१1१२
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