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न्यायसार सत्रकार ने शब्दप्रमाण में उपमान के अन्तर्भाव का निराकरण नहीं किया। संज्ञा. संज्ञसम्बन्धप्रतपत्ति की दृष्टि से उपमान का अन्तर्भाव अनुमान में ही संभावित है न कि शब्द प्रमाण में । इसीलिये दार्शनिक-सार्वभौम वाचस्पति मिश्र ने 'सांख्यतत्त्व कौमुदी में 'योऽव्ययं गवयशब्दो गोसदृशस्य वाचक इति प्रत्ययः, सोऽप्यनुमानमेव'' इस उक्त द्वारा अनुमान में ही मंज्ञासाज्ञसम्बन्धज्ञानरूप उपमान का अन्तर्भाव बतलाया है न कि शब्द में । अत शब्द में उपमान के अन्तर्भाव का सूत्रकार द्वारा निराकरण न करने से यह तात्पर्य निकालना कि सूत्रकार को उपमान का शब्द प्रमाण में अन्तर्भाव अभीष्ट है, यह ममुचित प्रतीत नहीं होता। अत. किसी भी प्रकार सूत्रकार को उपमान का पृथक् प्रामाण्यनिराकरण अभीष्ट नहीं, अपितु उपर्युक्त रीति से उसका पृथक् प्रामाण्य ही उनको अभीष्ट है । भामर्वज्ञ के उपमान प्रमाणसम्बन्धी विवेचन की अत्यन्त विलक्षणता की ओर सङ्केत करते हुए प्रोफेपर कार्ल एच्. पाटर ने भी यह स्वीकार किया हैं कि भामर्वज्ञाचार्य उपमान के पृथक् प्रमाणत्रनिराकरण को सूत्रकारसम्मत सिद्ध करने के प्रयासों द्वारा किसा को प्रभावित नहीं कर सके हैं।
1. सांख्यतत्वकौमुदी, पृ. १८५ 2. Bhasarvajha's discussion of this instrument is very peculiar. His
conclusion is that comparison is not an instrument of knowledge in addition to the others. contrary to what Gautama maintained. Yet he struggles to make it seem that he is not saying anything in conflict with the view of the Sotrakāra. His apologies seem to have taken no one in. More unusual still, he has no firm alternative to offer.-The Encyclopedia of Indian Philosophies, Vol. II (Delhi, 1977), p. 175.
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