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________________ सप्तम विमर्श प्रमेयनिरूपण प्रत्येक दर्शन का निरुपणीय प्रमेय तत्त्व होता है, वही उसका प्रधान प्रतिपाद्य होता है, किन्तु प्रमेय की सिद्धि प्रमाण के बिना अनुपपन्न है। प्रमाण ही प्रमेसिद्धि में समर्थ है, जैसाकि अभियुक्तों ने कहा है-' मानाधीना मेसिद्धिः, 'प्रमेयमद्धिः प्रमाणाद्धिः। अतः प्रमेय तत्त्व के प्रधानतया प्रतिपाद्य होने पर भी दार्शनिकों ने प्रमाण-निरुपण के पश्चात् प्रमेयनिरुपण किया है। आचार्य भासर्वज्ञ ने भी प्रमाण नरूपण के पश्चात न्यायसार के तृतीय परिच्छेद में प्रमेय पदार्थो का निरूपण किया है। यद्यपि 'प्रमाविषयत्वं प्रमेयत्वम' इस प्रकार से प्रमेय के लक्षण का प्रतिपादन किया जा चुका है तथापि वह प्रमेयसामान्य का लक्षण है। प्रमेयविशेष का अर्थात् विशिष्ट प्रमेय का लक्षण नहीं है। अतः जो प्रमेय तत्त्वज्ञान द्वारा अपवर्ग के साधन हैं, उन प्रपेयविशेषों में घटित होने वाला लक्षण यहाँ बतलाया जा रहा है . यद्विषयं तत्त्वज्ञानमन्यज्ञानानुग्योगित्वेन निःश्रेयसाङ्ग भवति, मिथ्याज्ञानं च संसारं प्रतनोति, तत् प्रमेयम्" अर्थात् जिसका तत्त्वज्ञान निःश्रेयस का साधक है तथा जिसका मिथ्याज्ञान संसार का जनक है, वह प्रमेय है। न्यायभाष्यकार तथा वार्तिककार ने भी प्रमेय विशेष का लक्षण इसी प्रकार किया है। उपर्युक्त प्रमेय का ही तत्त्वज्ञान तथा उसकी भावना मोक्ष के लिये कर्तव्य है। __ कीठसंख्यादि का तत्त्वज्ञान तथा उसकी भावना की व्यावृत्ति हो जाती है, क्योंकि उनका ज्ञान निःश्रेयस के लिये उपयोगी नहीं होता। इसीलिये बौद्ध दार्शनिक 1. सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. १०७ 2. सांख्यकारिका, ४ 3. (अ) न्यायभूषण, पृ. ६२ (ब) न्यायसार, पृ. २ . 4. न्यायसार, पृ. ३४ 5. (अ) अस्य तु तत्वज्ञानादेपवर्गो मिथ्याज्ञानात् संसार इत्यत एतदुपदिष्टं विशेषेणेति । -न्यायभाष्य, १११९ (ब) कतमं तत् प्रमेयं यदनेन प्रमाणेन यथावत् परिज्ञायमानमपवर्गाय अनबगम्यमानं च संसारायेति । -न्या.वा. १११९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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