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________________ कथानिरूपण तथा छल... १६१ (४) अपकर्षसम यहां भो उत्कर्षसम की तरह दृष्टान्त की समानता से पक्ष में अनिष्ट धर्म का आपादन होता है. किन्तु उत्कर्षसम में दृष्टान्त की समानता से पक्ष में अविद्यमान अनिष्ट धर्म का आपादन होता है और अपकर्षसम में दृष्टान्त की समानता से पक्ष में विद्यमान इष्ट धर्म के अभाव का आपादन । अतः विद्यमान इष्ट धर्म को निवृत्तिरूप अपकर्ष के कारण इसे अपकर्षसम संज्ञा प्रदान को गई है। जैसे-यदि कृतकत्व होने पर भी शब्द में सावयवत्व अभीष्ट नहीं है, तब उसमें अनित्यत्व भी नहीं माना जा सकता । अपकर्षसम का दूसरा उदाहरण है-कृतक घट श्रवणेन्द्रियग्राह्य नहीं है, इसलिये शब्द भो कृतकत्व के कारण श्रावण नहीं है, तो विशेषाभाव के कारण अनित्य भी नहीं होना चाहिये । उदाहरण के अनुसार अपकर्षसम का यह लक्षण किया जा सकता है.--'साध्ये इष्टधर्मनिवृत्तिरपकर्षसमः'। (५) वर्ण्यसम (६) अवर्ण्यसम शब्द की तरह घट में भी कृतकत्वामनुमान से वर्ण्यता का आपादन वर्ण्यसम जाति है । जैसे-'शब्दः अनित्यः कृतकत्वात् घटवत्' इस अनुमान में जैसे शब्द कृतकत्व के द्वारा वर्ण्य है वैसे दृष्टान्त घट भी कृतकत्व के द्वारा ही वर्ण्य होगा और ऐसा मानने पर वह साध्य हो जायेगा और उसकी सिद्धि के लिये अन्य दृष्टान्त का उपादान करना होगा । अन्य दृष्टान्त भी पूर्व दृष्टान्त की तरह वर्ण्य होगा। इस प्रकार उत्तरोत्तर दृष्टान्तों के कृतकत्वानुमान द्वारा वर्ण्य मानने पर अनवस्था दोष को आपत्ति होगी । अनवस्था दोष के परिहारार्थ यदि घट को अवर्ण्य माना जायेगा, तो शब्द को भी घट की तरह अवर्ण्य मानना होगा और तब अवर्ण्यसम जाति होगी। 'न्यायसार' में इनके निरूपण न करने का कारण इन दोनों भेदों की वस्तुतः साध्यसम से अभिन्नता है ।। (७) विकल्पसम समान धर्म वाले पदार्थो में विद्यमान धर्मभेद के साम्य से प्रकृत में भी धर्मभेद मानकर अनिष्ट धर्म का आपादन विकल्पसम जाति है। जैसे, कृतकत्व धर्म से युक्त सभी पदार्थ एक जैसे नहीं देखे जाते हैं, किन्तु उनमें धर्मभेद देखा जाता है। जैसे-बुद्धि, पट और घट तीनों कृतक हैं, परन्तु बुद्धि अमूर्त है, पट मूर्त और घट कठिन । इस तरह कृतक पदार्थों में धर्मभेद अनुभवसिद्ध है। इसी प्रकार घट की तरह शन्द के कृतक होने पर भी उनमें नित्यत्व व अनित्यत्व अवान्तर धर्मभेद मानकर शब्द में कृतकत्व के अवान्तर धर्म नित्यत्व का आपादान विकल्पसम जाति है। 1. एतौ च साध्यसमादुक्तियेदमात्रेण भिन्नो तेन संग्रहे न व्याख्यातो। -न्यायभूषण, पृ. ३४५ भान्या-२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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