SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ न्यायसार (८) साध्यसम समान धर्म वाले पदार्थो में एक के साध्य होने से तत्साम्य से दूसरे सिद्ध पदार्थ में भी साध्यता का आपादन साध्यसम जाति है । जैसे-यदि कृतक होने से शब्द और घट दोनों अनित्य हैं. तब अनित्य होने से दोनों को साध्य मानना चाहिये या किसी को नहीं। यदि समान रूप से दोनों के कृतक होने पर भी दोनों में साध्यत्व नहों, किन्तु एक में है, तो इसी साम्य से दोनों में अनित्यत्व नहीं मानना चाहिये । इस रीति से शब्द में अनित्यत्वाभावरूप अनिष्ट का आपादन साध्यसम जाति है। उत्कर्षसमादि ६ जातियों का उत्तर इन जातियों का उत्तर सूत्रकार गौतम ने 'किंचित्साधादुपसंहारसिद्भवैधादप्रतिषेधः" इस सूत्र के द्वारा दिया है। सत्र में उपसंहार शब्द क्रमशः अधिकरणव्युत्पत्ति से दृष्टान्त तथा साध्य का बोधक है। सिद्धि का अर्थ निश्चय है। महानसादि सपक्षों में तथा पर्वतादि पक्षों में धूमवत्त्वरूप किंचित् साधर्म्य ही है, पूर्ण साधर्म्य नहीं। किंचित् साधर्म्य से इनमें उपसंहारव्यवस्था (साध्यदृष्टान्तभावव्यवस्था) हो जाती है । यह आवश्यक नहीं कि पर्वतादि पक्षों और महानसादि दृष्टान्तों में सभी धर्म समान हों। धर्मविकल्प होने पर भी उनमें सर्वलोकप्रसिद्ध साध्य दृष्टान्तभावव्यवस्था देखी गई है तथा महानसादि के समस्त धर्मो की पर्वतादि में सिद्धि नहीं होती, अपि तु अग्निमत्त्व की होती है और महानसीय समस्त धर्मों की पर्वत में सिद्धि न होने पर भी पर्वत में अग्निमत्त्व का अभाव नहीं माना जा सकता और न पर्वतादि में दृष्ट धर्मों की महानसादि में अनुपलब्धिमात्र से निवृत्ति होती है । न घूमवान् महानसादि प्रदेशों में धर्मभेद की तरह अग्निमत्त्व का भेद होता है। इसी प्रकार सपक्ष महानसादि में अग्नि के अनुमेय होने से महानसीय अग्नि को अनुमेय माना जा सकता है । यह सब व्यवस्था व्यवहार में प्रसिद्ध है तथा शास्त्रों में स्वीकृत है। इसका अपलाप करने पर लोक और शास्त्र से विरोध होगा तथा समस्त अनुमान अप्रमाण हो जायेगे और इस प्रकार सभी अनुमानों में उत्कर्षसम और अपकर्षसमादि जातियां उद्भावित होने लग जायेंगी । इसलिये यह मानना होगा कि साध्य और दृष्टान्त में किंचित् साधर्म्य से साध्यदृष्टान्तभावव्यवस्था हो जाने पर अन्य असमानताओं (वैधयो) के आधार पर उस व्यवस्था का प्रतिषेध उचित नहीं । 'साध्यातिदेशाच्च दृष्टान्तोपपत्तः '1 -इस न्यायसत्र से भी यह सिद्ध है कि वादिप्रतिवादिसम्मत जिस वस्तु के द्वारा पक्ष में साध्य का अतिदेश किया जाता है, वह दृष्टान्त ही होता है, साध्य नहीं । 1. न्यायसूत्र, ५.११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy