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कथानिरूपण तथा छल...
१६३ (९) प्राप्तिसम (१०) अप्राप्तिसम प्राप्तिसम और अप्राप्तिसम का रक्षण प्राप्य साध्यमप्राप्य वा हेतोः प्राप्त्या विशिष्टत्वादप्राप्त्या साधकत्वाच्च प्राप्त्यप्राप्तिसमौ'1 इस न्यायसत्र में निर्दिष्ट है । अर्थात् हेतु साध्य से सम्बद्ध होकर साध्य को सिद्ध करेगा, तो दोनों में प्राप्ति के कारण समानता से साध्यसाधनभाव नहीं होगा, यह प्राप्तिसम है और असम्बद्ध हेतु से साध्यसिद्धि मानने पर असम्बद्धता के कारण वह साध्य को सिद्ध नहीं कर सकेगा, यह अप्राप्तिसम जाति है । तात्पर्य यह है कि हेतु साध्य से सम्बन्धित होकर साध्य की सिद्धि करता है अथवा असम्बद्ध होकर । असम्बद्ध होकर साध्य सिद्धि नहीं कर सकता, क्योंकि साध्य और हेतु दोनों सम्बद्धत्वेन समान हैं। ऐसी स्थिति में जैसे संयुक्त दो अगुलियों में साध्यसाधनभाव नहीं हो सकता, उसी प्रकार सम्बद्ध हेतु और साध्य में साध्यसाधनभाव नहीं उपपन्न होगा। साध्य से असम्बद्ध हेतु भी साध्य की सिद्धि नहीं कर सकता, क्योंकि जिस प्रकार असम्बद्ध काष्ठ को अग्नि जला नहीं सकता, असंयुक्त घटादि को प्रदीप प्रकाशित नहीं कर सकता, उसी प्रकार असम्बद्ध हेतु साध्यसिद्धि में समर्थ नहीं हो सकेगा।
इन दो जातियों का उत्तर सूत्रकार ने 'घटादिनिष्पत्तिदर्शनात् पीडने चाऽभिचारादप्रतिषेधः इस सत्र के द्वारा दिया है । इस सत्र के प्रथमार्ध में प्राप्तिसम का खण्डन है और उत्तरार्द्ध में अत्राप्तिसम का । अर्थात् जैसे यद्यपि मृपिण्ड और कुम्भकार संयुक्त हैं तथापि कुम्भकारादि द्वारा मृत्पिण्ड ही घटरूप से निर्मित होता है न कि मृत्पिण्ड से कुम्भकार | तथा प्रदीप और घटसंयुक्त हैं, परन्तु प्रदीप घट को प्रकाशित करता है. न कि घट प्रदीप को । इसी प्रकार बनि और धूम दोनों प्राप्त (संयुक्त) हैं, परन्तु साधकत्व धूम में ही है, वनि में नही यह लोकव्यवस्था हैं । भिचारादि कर्म दूरस्थ पुरुष से संयुक्त न होता हुआ भी उसे पीडित कर देता है। इसलिये यह कोई ऐकान्तिक नियम नहीं कि हेतु साध्य से संयुक्त अथवा असंयुक्त होकर ही उसकी सिद्धि करे । पदार्थों के धर्म व्यवस्थित है, अतः धूम तथा वहूनि के सम्बन्ध या असम्बन्ध के दोनो में समानरूप से रहने पर भी धूमादि में साधनाव ही है और वह्नयादि में साध्यत्व धर्म ही है। इन धर्मों की प्रतिनियत-पदार्थवृत्तिता का अपलाप नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनका अपलाप या निराकरण करना सर्वप्रमाणविरद्ध है।
(११) प्रसंगसम और (१२) प्रतिदृष्टान्तसम प्रसंगसम और प्रतिदृष्टान्तसम जातियों का लक्षण सूत्रकार ने 'दृष्टान्तस्य कारणान पदेशात् प्रत्यवस्थानाच्च प्रतिदृष्टान्तेन प्रसंगप्रतिदृष्टान्तसमौ' इस सूत्र के द्वारा बतलाया है। किसी अनुमान के दृष्टान्तभूत पदार्थ में कारण अर्थात् दृष्टान्त का 1. वही, ५११७
2. न्यायसूत्र, ५/११८ 3. न्यायसूत्र, ५।११
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