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प्रमाणसामान्यलक्षण विकल्पोल्लेखी संशयस्थल में भी 'न जानीमः किमिदम्' इस प्रकार का मानस उल्लेख होता ही है, अतः अनध्यवसाय में 'किमिदम्' इत्याकारक उल्लेख भी उसे संशय से पृथक् सिद्ध नहीं कर सकता ।'
'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इत्याकारक संशय में जिस प्रकार स्थाणु व पुरुष दोनों में ऊर्ध्वत्व, परिणाहत्वादि सामान्य धर्मों का ज्ञान है, उसी प्रकार ‘किसंज्ञकोऽयं वृक्षः' इस अनध्यवसाय में भी आम्र, पनस, आमलकादि विविध संज्ञाविषयक संशयज्ञान का जनक पर्णशाखास्कन्धत्वादि सामान्यधर्म का ज्ञान विद्यमान है। संशय सर्वत्र प्रसिद्धार्थविषयक ही होता है, यह नियम भी नहीं, क्योंकि स्थाणुपुरुषस्थल में ही 'क्या यह पुरोदृश्यमान वस्तु स्थाणु है या एतत्समान कोई अन्य वस्तु है, ऐसा संशय होता है । अतः सविकल्पक तथा निर्विकल्पक दोनों ज्ञानों में अवान्तर भेद होने पर भी जैसे 'सम्यगपरोक्षानुभवसाधन प्रत्यक्षम्' इस प्रत्यक्षलक्षण के अनुगत होने से उन्हें प्रत्यक्ष ही माना जाता है उसी प्रकार अनवधारणत्वरूप समानता के कारण अनध्यवसाय भी संशय से भिन्न नहीं है।
निष्कर्ष :
वैशेषिक दार्शनिक उभयोल्लेखी विमर्श को संशय मानते हैं, जैसा कि प्रशस्तपादाचार्य ने कहा है-'कि स्यात् इत्युभयावलम्बी विमर्शः संशयः। संशय की तरह अनध्यवसाय उभयोल्लेखी नहीं होता, अतः वैशेषिक उसे संशय से पृथक् मानते हैं । भासर्वज्ञ ने तर्क के संशयान्तर्भाव-निरूपण में ही स्पष्ट कर दिया है कि संशय में दो कोटियों का उल्लेख अनिवार्य नहीं है। 'मृत्युमें कदा भविष्यति' इत्याकारक कोटिद्वयानवलम्बी संशय भी होता है। 'किमिदम' इत्याकारक उल्लेख के आधार पर भी अनध्यवसाय को संशय से पृथक् नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानस उल्लेख संशय में भी होता है। 1. न्यायमुक्कावली, प्रथम भाग, पृ. २५. 2. न्यायसार, पृ. २. 3. भासज्ञ के इस समाधान १२ प्रस्न अस्थित होता है। निर्विकल्पक तया सविकल्पक
प्रत्यक्ष मे प्रत्यक्षलक्षण के अनुगत होने पर भी दोनों की अवान्तर भेद के आधार पर भिन्न भिन्न संज्ञा है, उसी प्रकार संशयलक्षण की अनध्यवसाय तथा ऊह मे' व्याप्ति होने पर भी अवान्तर भेद के कारण ऊह और अनध्यवसाय संज्ञाभेद उचित क्यों नहीं? समाधानअवान्तर भेद सविकल्पक और निर्विकल्पक प्रत्यक्ष मे है, न कि प्रत्यक्ष व सविकल्पक या निर्विकल्पक में । अतः सविकलक व निर्विकल्पक ज्ञानों का परस्पर भेद है, किन्तु प्रत्यक्ष से उनका भेद नहीं। उमी प्रकार अवान्तर भेद उह तथा अनध्यवासय ज्ञान में है, किन्तु संशय से उन दोनों का भेद नहीं है। दोनों ही अनवधारणतमक होने से संशयान्तर्गत है।
अतः यह शंका निराधार है। 4. प्रशस्त्पादभाष्य, पृ. १...
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