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न्यायसार
भासर्वज्ञ के परवर्ती वैशेषिक दार्शनिक श्रीमद्वल्लभाचार्य ने अनध्यवसाय के संशयान्तर्भाव का खण्डन करते हुए कहा है- 'संशय एवायमिति भूषणः मैत्रम् | सामान्यतोऽवगते विशेषतोऽज्ञाते जिज्ञासते वाच्यविशेषे यदा किं शब्दाभिलापः तदानध्यवसायः । अव्यवस्थितनानावाचकवाच्यत्वप्रतिभासे तु संशय इति' ।' लीलावतीकारकृत अनध्यवसाय के संशयान्तर्भाव का यह प्रत्याख्यान भी निराधार है, क्योंकि अनध्यवसाय में भी संशय की तरह वस्तु का सामान्यधर्मपुरःसर ज्ञान है तथा करचरणादिमत्त्वादिरूप विशेषधर्मपुरःसर नहीं | तथा 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इत्याकारक संशय में भी 'किमिदम्' इत्याकारक मानस उल्लेख होता है, अतः यह भेदकथन निराधार है ।
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विपर्यय-निरूपण
महर्षि गौतम ने निम्नलिखित न्यायसूत्र में विपर्यय का मिथ्याज्ञान शब्द से निर्देश किया है
".
'दु' खजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः । "" आत्मादि अपवर्गपर्यन्त प्रमेयों में मिथ्याज्ञान की अनेकप्रकारता का संकेत करते हुए भाष्यकार ने उसके स्वरूपपरिचायक अनेक उदाहरण दिये हैं । जैसे- ' आत्मनि तावन्नास्ति, 'अनात्मनि आत्मेति इत्यादि । वार्तिककार ने विपर्यय का स्वरूप बतलाते हुए कहा है- 'अतस्मिंस्तदिति प्रत्ययः ।" अर्थात् भिन्न वस्तु में भिन्न वस्तु की प्रतीति विपर्यय है । जैसे, सर्प-भिन्न रज्जु में सर्पप्रतीति, रजतभिन्न शुक्ति में रजत को प्रतीति ।
आचार्य भासर्वज्ञ ने विपरीत अर्थ के निश्चय को अर्थात् भिन्न वस्तु में भिन्न वस्तु के ज्ञान को विपर्यय कहा है । जैसे- - एक चन्द्र में 'द्वौ चन्द्रौ' इत्याकारक ज्ञान । चन्द्रमा के एक होने पर भी तर्जनी से नेत्रपुत्तलिका को निष्पीडित करने से दो चन्द्रमाओं का अनुभव किया जाता है । चन्द्रमा के उत्तरकालभावी एकत्वज्ञान से चन्द्रद्वित्वज्ञान के बाधित होने के कारण उसकी विपर्यस्तता स्फुट है । यह जाग्रदवस्था का विपर्यय है । सोये हुए व्यक्ति का गजादिदर्शन भी विपर्यय है । यह स्वप्नावस्था का विपर्यय है ।" ' द्वौ चन्द्रौ' इस उदाहरण से विपर्यय का स्वरूप स्पष्ट हो जाने पर भी सोये हुए पुरुष का गजादिदर्शन1. न्यायलीलावती, पृ. ५७.
2. न्यायसूत्र, १११/२.
3. न्यायभाष्य, १/१/२.
4. न्यायवार्तिक, १|१|२.
5. मिध्याध्यवसायो विपर्ययः । न्यायसार, १२.
6. विपर्ययो द्विधा - अनुभूयमानारोपः स्मर्य्यमाणारोपश्च । - न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. ६६.
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