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प्रेमाणसामान्यलक्षण
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यह उदाहरणान्तर सभी प्रकार के विपर्ययों का संग्रह करने तथा मतान्तर का निषेध करने के लिये दिया गया है । अर्थात् एक चन्द्रमा में द्विचन्द्रत्वज्ञान से जागरणकालिक विपर्ययों का संग्रह हो जाने पर भी स्वप्नकालिक स्वप्नरूप विपर्यय का संग्रह नहीं होगा । अतः तत्संप्रहार्थ यह उदाहरण दिया गया है ।
स्वप्न के पृथक्ज्ञानत्व का निराकरण
वैशेषिक स्वप्न को विपर्ययज्ञान से भिन्न मानते हैं, जैसा कि प्रशस्तपादभाष्य में कहा है- 'अविद्या चतुर्विधा संशयविपर्ययानध्यवसायस्वप्नलक्षणा' | किन्तु यहां 'सुप्तस्य गजादिदर्शनम्' को विपर्यय के उदाहरण रूप में प्रस्तुत करने से स्वप्न गजादि ज्ञान विपर्यय ही है, यह सिद्ध किया है । क्योंकि स्वप्न में गजादि के न होने पर भी गजादिज्ञान होना विपरीतार्थज्ञान ही है । इतना ही अन्तर है कि स्वप्नगजादिज्ञानरूप विपर्यय उपरत इन्द्रिय वाले तथा प्रलीनमनस्क पुरुषों को होता है और लोक में सवादिसंमत रज्जुसर्पादि विपर्ययज्ञानों में इन्द्रियों की उपरति तथा मन का प्रलय नहीं होता । अवान्तर वैधर्म्यमात्र के होने पर भी विपरीतार्थ का ज्ञान जामद्विपर्यय तथा स्वाप्नविपर्यय दोनों में समान है । अतः विपर्ययलक्षणाक्रान्त होने से स्वप्नज्ञान भी विपर्यय ही है ।
जिन स्वप्नज्ञानों में निश्चयात्मकता नहीं होती, उन ज्ञानों के अनवधारणात्मक होने से उनका संशय में अन्तर्भाव हो जाता है । कार्य संशय को देखकर कारण के सामर्थ्य का अवधारण किया जाता है, अतः स्वाप्नसंशय में समानधर्मादि का सम्यग् ज्ञान न होने से भ्रान्त समानधर्मादिज्ञान को भी संशय में कारण मानना पड़ता है । * इस प्रकार अनवधारणात्मक स्वप्नज्ञान का भी संशय में अन्तर्भाव है । अवधारणात्मक तथा विपरीत निश्चयात्मक स्वप्नज्ञान से भिन्न अनुभूत अर्थ का प्रकाशक स्वप्नज्ञान स्मरणकोटि में आ जाता है तथा स्वप्न में उपर्युक्त तीनों प्रकारों से भिन्न जो सम्यक् अनुभवात्मक स्वप्नज्ञान है, वह प्रत्यक्षप्रमारूप होने से प्रत्यक्ष
1. वैशेषिकदर्शन में स्वप्न को विपर्यय से पृथक् माना गया है । किरणावलीकार उदयनाचार्यने प्रशस्तपादप्रोत विपर्ययलक्षण में' ' प्रत्ययः शब्द से स्वप्न को व्यावृत्ति की है, क्योंकि प्रत्यय पद जागरावस्था के ज्ञान का बोधक है और स्वप्नगजा दिज्ञान जागरावस्था का ज्ञान नहीं है । इसीलिये उन्होंने कहा है ' प्रत्यय इति जागरावस्थात्वं तेन स्वप्नव्यवच्छेद इति । एतदुक्तं भवति अयथार्थ निश्चयात्मकं जागरावस्थाज्ञानं विपर्यय इति, लोके तथैव प्रसिद्धेः' (किरणावली, पृ. १७४ )
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2. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १३७
3. न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, पृ. ६३
4. तच्च समानधर्मादिज्ञानं सम्यग्वा भवतु भ्रान्तं वा इत्युभयथापि सहकारिसहकृतं संशयकारणत्वेनेष्यम्, कार्यदर्शनाद्धि कारणस्य सामर्थ्यमवधार्यत इति । - न्यायभूषण, पृ. २५.
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