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न्यायसार
है । जैसे-सुखादि का संवेदन । इस प्रकार सभी स्वप्नादिज्ञानों का संशय, विपर्यय, स्मृति तथा प्रत्यक्ष प्रमा में अन्तर्भाव हो जाने से स्वप्नज्ञान को मंशय, विपर्यय, स्मृत्यादि से भिन्न मानना असंगत है।
उपर्युक्त रोति से विपर्यय जामत्कालिक विपर्यय तथा स्वाप्न विपर्यय भेद से दो प्रकार का है।
बाह्य तथा आध्यात्मिक निमित्तों के भेद से विपर्यय के अनेक भेद हो जाते हैं१. रज्जु में 'सर्प' इत्याकारक तथा स्थाणु में 'पुरुष' इत्याकारक विपर्यय सादृश्य.... हेतुक है। २ शुक्ल पट में रक्तादिज्ञान द्रव्यान्तरसंसर्गहेतुक है। ३. स्फटिकादि में रक्तादिज्ञान जपाकुसुपरूप उपाधिसंनिधानमात्र हेतुक है । ४ क्रमशः होने वाले कार्यों में योगपथ का ज्ञान आशुभाविताहेतुक है। ५. स्थिर पदार्थो में चलने का ज्ञान नावादियानगतिमूलक है। ६. इन्द्रजालादि का ज्ञान मन्त्र-औषधादिसामर्थ्य हेतुक है। ये भेद बाह्य-निमित्तप्रधान विपर्यय के हैं। १. चश्वरादे के पित्तादि से अभिभूत होने पर शंखादि में पीतिमा का ज्ञान, २. तिमिर दोष के कारण केशाभाव होने पर भी केशोण्डुक (केशसमूह) का ज्ञान
तथा एक चन्द्र में अनेकत्व का अवभास, ३. संस्कारातिशय के कारण युवति आदि विषय के अभाव में भी युवति आदि
का अवभास, ४. असत् शाख के अभ्यास से अश्रेयस् में श्रेयस्त्व का तथा माक्षााद के अनुपायों
में उपायत्वज्ञान, ५. अदृष्टसामर्थ्य के कारण दिग्भ्रम, ६. निद्रासहित संस्कारातिशयादि से स्वप्नज्ञान । से विपर्ययज्ञान आध्यात्मिक निमित्तहेतुक हैं।
स्मर्यमाणारोप विपर्यय के उदाहरण ‘सुप्तस्य गजादिदर्शनम्' का प्रयोजन जयसिंहसरि ने अविवेकख्याति (स्मृतिविप्रमोष), अख्याति, असख्याति, प्रसिद्धार्थकयाति. आमख्याति, अनिर्वचनीयख्याति, अलौकिकार्थख्याति-इन सात विपर्ययप्रकारों का निरास तथा स्वमतानुसार विपरीतार्थख्याति का प्रस्थापन माना है।
विपर्ययज्ञान सभी दार्शनिकों को स्वीकृत है, किन्तु उसके स्वरूप में दार्शनिकों में परस्पर महान् वैमत्य है । क्योंकि विपर्यय में जिस वस्तु की प्रतीति होती है. उस प्रतीयमान वस्तु के स्वरूप को लेकर दार्शनिकों का मतभेद है और उसी के कारण विपर्यय के स्वरूप में भेद हो जाता है। प्रतीयमान वस्तु किसी के मत में 1. न्यायभूषण, पृ. २५-२६ - 2. न्यायतात्पर्य दीपिका, पृ. ६७
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