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________________ प्रमाणसामान्यलक्षण ३९ असत् , किसी के मत में सत् , किसी के मत में अलौकिक, किसी के मत में प्रसिद्ध वस्तु तथा किसी के मत में अनिर्वचनीय आदि है । और इन्हीं आधारों पर असख्याति आदि नामों से दार्शनिकों ने उन्हें व्यवहृत किया है। भासर्वज्ञ ने 'न्यायभूषण' के “विपर्ययप्रकरण' में ८ प्रकार की ख्यातियों का प्रतिपादन किया है। उपर्युक्त सभी ख्यातियों को दो प्रधान विभागों में विभक्त किया जा सकता है-१ निरालम्बन ख्याति, २ सालम्बन ख्याति । जिसमें विपर्यय का कोई आलम्बन नहीं होता, अपितु बिना आलम्बन विपर्यय की प्रतीति होती है, उसे निरालम्बनख्याति कहते हैं । इस निरालम्बनख्याति को मानने वाले अख्यातिवादी माध्यमिक बौद्ध हैं । वे भ्रमज्ञान का कोई आलम्बन स्वीकार नहीं करते । दूसरी सालम्बन ख्याति है। इसमें भ्रमज्ञान का आलम्बन होता है, क्योंकि निरालम्बन ज्ञान नहीं होता । किन्तु उन आलम्बनों का भिन्न-भिन्न स्वरूप होने से यह सालम्बन ख्याति, असतख्याति, प्रसिद्धार्थख्यानि आदि भेद से ७ प्रकार की है । भ्रमज्ञान का विषय असत्पदार्थ है, ऐसा मानने वाले असख्यातिवादी माध्यमिकैकदेशी बौद्ध हैं । भ्रमज्ञान का आलम्बन प्रसिद्ध प्रतीयमान पदार्थ है, ऐसा मानने वाले प्रसिद्धार्थख्यातिवादी चार्वाक हैं। अलौकिक अर्थ भ्रमज्ञान का आलम्बन है ऐसा मानने वाले अलौकिकार्थख्यातिवादी भद्र उम्बेक आदि हैं। तत्ताज्ञानरहित रजत का स्मरण भ्रमज्ञान का आलम्बन है, ऐसा मानने वाले प्राभाकरमीमांसक हैं। रजतरूप ज्ञानाकार आत्मा ही भ्रम का आरम्बन है. ऐसा मानने वाले आत्मख्यातिवादी सौत्रान्तिक वैभाषिक बौद्ध हैं। सत और असत् से विलक्षण अनिर्वचनीय विषय ही भ्रम का आलम्बन है. ऐसा मानने वाले अनिर्वचनीय-ख्यातिवादी वेदान्तो हैं । विषय की अन्य रूप से प्रतीति भ्रम में होती है, ऐसा मानने वाले न्यायनिपुण नैयायिक हैं । स्वरूपज्ञानार्थ इन सभी ख्यातियों को यहां संक्षेप में निरूपण किया जा रहा है-- अख्याति माध्यमिक बौद्धों के अनुसार शुक्तिरजतादिभ्रमज्ञान का कोई भी आलम्बन नहीं है, क्योंकि रजतसत्ता को रजतज्ञान का आलम्बन मानने पर जल में जलज्ञान होने से वह सम्यगज्ञान होगा न कि भ्रमज्ञान । रजताभाव की वहां प्रतीति नहीं, अतः वह आलम्बन हो नहीं सकता । शुक्ति भी आलम्बन नहीं हो सकती, क्योंकि शुक्ति की प्रतीति मानने पर वह ज्ञान शुक्ति में शुक्तिविषयक होने से समीचीन ज्ञान होगा और अप्रतीयमानशुक्ति आलम्बन नहीं हो सकती । रजताकार से शुक्ति 1. Bhāsarva jña discusses 8 different theories regarding the status of the contect of erroneous judgment. This is rather interesting because Vacaspati Misra, in a similar context in Tātparyatıkā, mentions only 5 different theories or Khyatis. - "The Encyclopedia of Indian Philosophers, Vol. II (Summary of Nyayabhusana by B. K. Matilal), Matilal Banarasidass, Delhi, 1977, p. 411. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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