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________________ म्यायसार की भ्रम में प्रतीति होती है, यह कथन भी समीचीन नहीं, क्योंकि भिन्न वस्तु का भिन्नाकार से ग्रहण लोक में अनुभूत नहीं है, अन्यथा पट का भी घटाकार से ग्रहण होने लग जायेगा । अतः शुक्तिरजतादि ज्ञान सर्वथा निरालम्बन है । यही अख्याति है। किन्तु बौद्धों का भ्रमस्थल में निरालम्बनवाद सर्वथा असमीचीन है, क्योंकि किसी पदार्थ के आलम्बन न होने पर उस ज्ञान में रजतज्ञान, जलज्ञान इत्याकारक विशेषता की प्रतीति अनुपपन्न होगो तथा भ्रान्तिज्ञान को निरालम्बन मानने पर सुषुप्तिदशा से इसका कोई भेद न होगा। प्रतीयमान अर्थ से भिन्न कोई आलम्बन नहीं है, यह मानने पर प्रतीयमान अर्थ के आलम्बन होने से ख्याति को निरालम्बनता व अख्यातित्व का विघात होगा । अतः अख्यातिवाद अनुपपन्न है । असख्याति बौद्धैकदेशी भ्रमस्थल में असत्पदार्थ को आलम्बन मानता है, क्योंकि शुक्ति. रजतादिभ्रमस्थल में शुक्ति में रजत अर्थ की प्रतीति होती है और सत् रजतरूप अर्थ का शुक्ति में अभाव है । अतः असत् रजतरूप अर्थ को शुक्ति का आलम्बन मानने से इसे असख्याति कहना उचित है। किन्तु यह मत भी असमीचीन है, क्योंकि असत् आकाशकुसुमादि की प्रतीति लोक में अनुभूत नहीं है । अतः असत् की प्रोते मानना लोहानुभयविरुद्ध है तथा असत् अर्थ को भ्रम का आलम्बन मानने पर उसमें किसी प्रकार के वैचित्र्य की सत्ता न होने से भ्रम-ज्ञानों में अनुभूयमान वैचित्र्य की भी अनुपपत्ति होगी। प्रसिद्धार्थख्याति चार्वाक असत् को प्रतीते की अनुपपन्नता के कारण शुक्तिरजतादिभ्रमस्थल में प्रमागसिद्ध रजतादि अर्थ को ही उसका आलम्बन मानता है। क्योंकि भ्रम की निवृत्ति के बाद भ्रमस्थल में रजत को प्रतीति न होने से भ्रमकाल में भ्रमस्थल में रजता दे की प्रतीति अनुभवसिद्ध है। अतः उस काल में उसकी सत्ता मानना भी आवश्यक है, क्योंकि पदार्था की सत्ता प्रतीति से ही सिद्ध होती है। करतलादि के अस्तित्व में भी प्रतीति ही प्रमाण हैं । अतः प्रतीतिसिद्ध प्रसिद्ध अर्थ के भ्रम का आलम्बन न होने से वह शुक्तिरजतादि भ्रमस्थल में प्रसिद्धार्थरूयाति मानता है। किन्तु यह मत भो अविचारितरमणीय ही प्रतीत होता है, क्योंकि प्रमाणसिद्ध अर्थ की भ्रमस्थल में प्रतीति मानने पर समीचीन जलादिज्ञान की तरह मरीचिजल में भी प्रमाण-सिद्ध अर्थ की प्रतीति होने से वह समीचीन ज्ञान कहलायेगा न कि भ्रमज्ञान । तथा उत्तरकाल में उदक की प्रतीति न होने से उदक के अभाव में भी पूर्वकाल में प्रसिद्ध जलजन्य भूस्निग्धता का उपलम्भ होना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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