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________________ प्रमाणसामान्यलक्षण अलौकिकार्थख्याति चार्वाकाभिमत प्रसिद्धार्थस्याति में उपर्युक्त दोष के कारण भट्ट उम्बेक भ्रमस्थल में अलौकिक अर्थ को प्रतीति मानते हैं। उनके मतानुसार भ्रमस्थल में शुक्तिरजतादिज्ञान में लौकिक रजत तो आलम्बन हो नहीं सकता, क्योंकि वहां उसका अस्तित्व नहीं है और बिना विषय के उसका मान या प्रतीति अनपपन्न है। स्थलों में अलौकिक अर्थ की प्रतीति मानना उचित है । लौकिक रजत के वहां न होने पर भी अलोकिक रजत का अस्तित्व वहां माना जा सकता है और वही भ्रम ज्ञान का आलम्बन है । यही अलौकिकार्थख्याति है । किन्तु यह मत भी समीचीन नहीं, क्योंकि वस्तु का अस्तित्व प्रमाणों से सिद्ध होता है। भ्रमस्थल में अलौकिक अर्थ किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं है । प्रत्यक्षादिप्रमाणों से सिद्ध न होने पर भी विपर्यय प्रमाण से यह सिद्ध है. क्योंकि विपर्ययदशा में ही अलौकिक अर्थ की प्रतीति होती है, यह मानना भी उचित नहीं, क्योंकि अलौकिकार्थ को प्रमाणसिद्ध मानने पर सम्यग् रजतादिज्ञान की तरह उत्तरकाल में उसके बाध की अनुपपत्ति होगी। तथा विपर्यय को अलौकिकार्थसाधक प्रमाण भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह स्वयं उत्तरकाल में बाध्यमान है और बाध्यमान प्रमाण नहीं होता। स्मृतिप्रमोष अलौकिकार्थख्याति में उपर्युक्त दोषों का सद्भाव होने से प्रभाकर शुक्तिरजतादिस्थल में स्मृतिविप्रमोष मानता है ! अर्थात् शुक्तिरजतज्ञान रजत का स्मरणात्मक ज्ञान हैं, किन्तु दोष के कारण उस ज्ञान में तत्ता की प्रतीति नहीं होती है। अर्थात् 'तदरजतम्' इस रूप से उसकी प्रतीति नहीं होती, यही स्मृतिप्रमोष है। किन्तु यह मत निर्दुष्ट नहीं है, क्योंकि दोष के कारण रजतस्मरण में तत्तांश का प्रमोष हो जाने पर भी 'रजतम्' इत्याकारक ही प्रतीति होनी चाहिये न कि 'इदं रजतम्' इत्याकारक । लेशतः भी अपूर्व अंश की प्रतीति मानने पर स्मृतित्व की अनुपपत्ति होगी । इसीलिये 'सोऽयं देवदत्तः' इत्याकारक अपूर्वांशप्रतिभासी ज्ञान को प्रत्यभिज्ञा माना जाता है न कि स्मृति । मनोदोष के कारण स्मृति शुक्तिरूप अर्थ की रजताकार. रूप से प्रतीति कराती है, ऐसा मानने पर तो अन्यथाख्याति ही हो जायगी, क्योंकि अन्य वस्तु की अन्याकारता से प्रतीति ही अन्यथाख्याति है। तथा भ्रम संस्कारहित केवल मनोदोषों से भी होता है । अतः विपर्यय को स्मृति मानना उचित नहीं । दूध तथा जल के मिल जाने पर जैसे उनकी भेदेन प्रतीति नहीं होती उसी प्रकार शुक्ति के इदमित्याकारक अनुभवज्ञान तथा 'रजतम्' इत्याकारक स्मृतिज्ञान की भेदेन प्रतीति न होकर 'इदं रजतम्' इस रूप से अभेदेन प्रतीति को भी स्मृतिविप्रमोष नहीं माना जा सकता। क्योंकि ऐसा मानने पर दो भिन्न ज्ञानों की भान्या-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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