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________________ ४२ न्यायसार अभेदेन प्रतीति अन्यथाख्याति ही हो जायेगी तथा दोनों ज्ञानों के अभेदज्ञान को स्मृतिविप्रमोष मानने पर 'इदं रजतम्' इस ज्ञान के उत्तरकालभावी 'नेदं रजतम्' इस ज्ञान की बाधकता अनापन्न होगी। क्यों के दोनों ज्ञानों के अभेदज्ञान का बाधक ज्ञान तो दोनों का भेद कराने वाला होना चाहिये, न कि रजत का निषेध कराने वाला । अतः स्मृतिविप्रमोष भी भ्रमस्थल मैं अनुपपन्न है। आत्मख्याति विज्ञानवादी, सौत्रान्तिक तथा वैभाषिक बौद्व भ्रमस्थल में आत्मख्याति मानते हैं । उनका कहना है कि 'रजतज्ञानम्,' 'जलज्ञानम्' इत्यादि विशिष्ट व्यवहारज्ञान में ज्ञानगत या अर्थगत विशेषता मानने पर ही हो सकता है । भ्रमस्थल में रजतादि की सत्ता न होने से उनको उस व्यवहार का प्रवर्तक नहीं माना जा सकता। स्मृत्युपस्थापित रजत पूर्वकालिक अनुभव का ही विशेषक हो सकता है, वर्तमानकालिक 'इई रजतम्' इस ज्ञान का नहों, क्योंकि उसका पूर्व अनुभवात्मक ज्ञान से ही सम्बन्ध है, वर्तमानकालिक रजतज्ञान से नहीं । शुक्तिका को भी भ्रमज्ञान का विशेषक नहीं माना जा सकता, क्यों क उसकी प्रतीति होने पर रजत की प्रतीति ही नहीं होगी। अतः अर्थ रजतज्ञानादिविशिष्ट व्यवहार का प्रवर्तक नहीं हो सकता । परिशेषात् ज्ञान को ही विशिष्ट व्यवहार का प्रवर्तक मानना होगा । भ्रमस्थल में ज्ञानाकार अन्तःस्थ रजत ही अनादिविद्योपप्लववशात् बाह्य की तरह प्रतीत होता है। चूंकि यह रजत ज्ञान से भिन्न वस्तु नहीं, अपितु ज्ञानाकार हो है और क्षणिक विज्ञान ही बौद्धमत में आत्मा होता है, इसलिये ज्ञानाकार रजत की प्रतीति ही आत्मख्याति शब्द से व्यपदिष्ट हुई है। यह मत भी अनुपपन्न है, क्योंकि प्रथम तो अर्थ ज्ञान के आकारविशेष नहीं, अपितु ज्ञान से भिन्न स्वतन्त्र हैं. यह अनुभवसिद्ध है तथा उपर्युक्त रीति से सभी अर्थो के ज्ञानाकार होने से ज्ञानाकारता का किसी भी ज्ञान में व्यभिचार न होने से ज्ञानों में बाध्यबाधकभाव को अनुपपत्ति होगी। इसी प्रकार रजतादि अर्थों को ज्ञानाकार मानने पर ज्ञान की सुखादि की तरह अन्तःसत्तो होने से बाह्यत्वेन उनकी प्रतीति तथा ज्ञाता की रजतादिग्रहण के लिये बहिःप्रवृत्ति नहीं बनेगी। .. अनिर्वचनीयख्याति वेदान्ती म्रमस्थल में अनिर्वचनीयख्याति मानते हैं। उनका कथन है कि बिना विषय के ज्ञान नहीं होता और जिस ज्ञान में जिस वस्तु की प्रतीति होती है, वही उसका विषय होता है, जैसे समीचीन ज्ञान में । भ्रमस्थल में 'इदं रजतम्' इस ज्ञान में रजत की प्रतीति होती है, अतः रजत को ही उस ज्ञान का विषय मानना होगा । किन्तु वह रजत सत् नहीं हो सकता, क्योंकि सत् होने पर वह ज्ञान भ्रम नहीं कहलायेगा और उत्तरकाल में उसका वाध नहीं होगा । असत् मानने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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