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________________ परवर्ती ग्रन्थकारों... २३९ के लिये तवज्ञान और अभ्यास दोनों उपादेय हैं- 'तथा चाक्षपादानामपि न्यायभूषणे तृतीये परिच्छेदे परमात्मतत्त्वज्ञानं च तदुपासनांगत्वेनापवर्गसाधनम् (३.१२३ ) इत्येतद् वाक्यविचारे तस्य परमेश्वरस्योपासनमाराधनम् -- तस्यांगत्वेनोपायत्वेन केनचिदुपायेन क्लेशाः रागद्वेषमोहाः क्षीयन्ते महेश्वरविषयं चित्तैकायं च प्राप्यते । स उपायः अनुष्ठीयमानः 'तपः स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि क्रियायोगः' (यो.सु. २ । १) । क्लेशननूकरणार्थ ः समाधाभार्थश्च इते विचारे कर्मणोऽङ्गित्वेन ज्ञास्य च कर्मांगत्वेन स्पष्ट एव समुच्चयपक्षः' । आनन्दवर्धन ने यह भी उल्लेख किया है कि योगियों द्वारा स्वीकृत कायव्यूह सिद्धान्त न्यायभूषणकार को भी मान्य था - ' कमभोगार्थ नानाशरीरस्थोऽहमक एव न्यायभूषणोक्तयुक्त्या ।" मानमनोहरकार वादिवागीश्वराचार्य ने भो भासवज्ञप्रतिपादित मुक्ति का वैशेषिकी मुक्ति से विरोध होने के कारण खण्डनार्थ भासर्वज्ञसम्मत मोक्षस्वरूप का उल्लेख किया है- 'अत्र केचित् दुःखपरिहारार्थं ज्ञानसुखयोः पूर्व विषयविषयिभावोऽनुपपन्नः पश्चादुत्पद्यत इति ब्रूयुः । तदसाम्प्रतम्, तत्सद्भावे प्रमाणाभावात । यस्य लोके प्रसिद्धिः, तस्य प्रयोजकत्वमित्यप दुर्घटमेव । नेह ज्ञानमस्ति विषयविषयिभावो नास्तीति दृष्टपूर्वम् ज्ञानस्य वाक्येनोत्पादक सामग्रया एव वा तदुत्पादकत्वात् ।" भासर्वज्ञ का मत है कि सुख तथा सुखज्ञान का सम्बन्ध संसारदशा में दुःखराशि के प्रतिबन्धक होने से नहीं हो पाता । जैसे, चक्षु तथा घट के होने पर भी भित्ति आदि के व्यवधान से उनका सम्बन्ध नहीं होता, किन्तु मोक्षदशा में दुःखरूप प्रतिबन्धक का अभाव हो जाने से सुख त्र सुखज्ञान का विषयविषयिभाव सम्बन्ध बन जाता है । अतः मोक्ष में सुख तथा सुखज्ञान उपपन्न है । किन्तु भासर्वज्ञ का यह कथन संगत नहीं क्योंक नित्य सुख के होने में कोई प्रमाण नहीं । नित्य सुख जब लोक में प्रसिद्ध नहीं है, तो वह मोक्ष का प्रयोजक कैसे हो सकता है ? ज्ञान हो और उसका विषय के साथ विषयावषयिभाव सम्बन्ध न हो, ऐसा कहीं देखा नहीं गया है, क्योंकि ज्ञान की उत्पादक सामग्री हो विषयविषयिभाव सम्बन्ध की उत्पादिका है । वादिदेव सूरि ने चक्षुरिन्द्रिय द्वारा अर्थप्रकाशन के विषय में भूषणमत उद्घृत किया है - ' यत्तु भूषणेनावभासे कथनमनुद्भूतरूपाणामर्थ प्रकाशकत्वमिति चेत्, न प्रदीपप्रकाशसंहितानां तदुपपत्तेः । अत एव येषामदृष्टसामर्थ्यादुद्भूतरूपा नायना रश्मय उत्पन्नास्तेषां बाह्यप्रकाशनिरपेक्षा एवार्थ प्रकाशयन्ति । यथा - नक्तंचराणाम् । तथा च केषांचित् नक्तंचराणां नायना रश्मयः प्रत्यक्षेण दृश्यन्ते । 1. Nyāyabhūsana - A Lost Work on Medieval Indian Logic-A. L. Thakur, JBRS, Vol. XLV. p. 99, Footnote No. 71 2. Ibid, Foot note No. 72 3 मानमनोहर, पृ. १४३-१४४ 4. Thakur, A. L.. Nyayabhusana - A Lost Work on Medieval Indian Logic, JBRS, Vol. XLV, p. 97, Footnote No, 57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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