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प्रत्यक्ष प्रमाण
आचार्य कुमारिल ने बौद्धों के आक्षेपों का खण्डन करते हुए सविकल्पक की प्रत्यक्षता स्थापित को है । सामश्यन्तर से उत्पन्न होने पर भी अर्थ की असाधारणकारणता के कारण जिस प्रकार निर्विकल्पक अक्षजन्य ही होता है, उसी प्रकार सविकल्पक भी अक्षजन्य है । सविकल्पक के लिये प्रयुक्त प्रत्यक्ष शब्द चाहे यौगिक हो अथवा रूढ (अव्युत्पन्न), प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग तो निःसन्दिग्ध है, इसलिये उसकी प्रत्यक्षता भी निःशंका है।
. प्रभाकरमतानुयायी शालिकनाथ ने साक्षात् प्रतीत को प्रत्यक्ष कहा है।' निर्विकल्पक और सविकल्पक प्रत्यक्ष की इन दो विधाओं का निर्देश करते हुए उन्होंने बतलाया है कि सविकल्पक बुद्धि का विषय विशिष्ट पदार्थ होता है और निर्विकल्पक बुद्धि का विषय स्वरूपमात्र। दूव्य, जाति तथा गुण में सर्वप्रथम इन्द्रियसंनिकर्षजन्य वस्तुमात्र का ग्राहक विकल्पावस्था से पूर्ववती' निर्विकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है, वह स्वानुभवसिद्ध है। विषयान्तर के अनुसंधान से शून्य और समाहित चित्त वाला व्यक्ति इन्दिय संयुक्त वस्तु का साक्षात् ज्ञान करता है । इस प्रकार स्वानुभव हो निर्विकल्प कज्ञान को सत्ता में प्रमाण है । मीसांसाश्लोकवार्तिक में इस प्रसंग में लिखा है
'अस्ति ह्यालोचनाज्ञान प्रथमं निर्विकल्पकम् ।
बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् ॥ अपि च
'आलोच्यते वस्तुमान ज्ञानेनापात जन्मना ।
अचेत्यमानो भेदोऽपि चकास्तीत्यतिसाहसम् ॥5 निर्विकल्पक से अनन्तरवर्ती मविकल्पकज्ञान सासान्य को सामान्य रूप से और विशेष को विशेष रूप से विषय करता है। निर्विकल्पक द्वारा सामान्य ओर विशेष की प्रतिपत्ति होने पर भी उनके भेद का ग्रहण नहीं होता । वस्तुभेदपात्र से भेदबुद्धि नहीं होती, अपि तु पटत्वादि धर्मान्तर का ग्रहण भी भेदबुद्धि में सहकारी होता है।
1. सर्वथा प्रत्यक्षशप्रयोगादस्ति प्रत्यक्षत्वं सविकल्पकस्य ।
___-तात्पर्यटीका (श्लोकवार्तिकव्याख्या), पृ. १५३ 2. साक्षात्प्रतातिः प्रत्यक्षम् ।- प्रकरणपंचिका, पृ. ५) 3. आद्या विशिष्ट विषया स्वरूपविषयेतरा ।- वही, पृ. ५४ 4. मीमांसाश्लोकवातिक, पू १६८ (प्रत्यक्षसूत्र, का. ११२) 5. ब्रह्मसिद्धि, २/२७, पृ. ७०
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