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________________ ७४ न्या सार बौद्ध मत में शब्दसंसर्ग कि योग्यता से रहित निर्विकल्पकज्ञान ही वास्तव में प्रमाण है । सविकल्पक प्रत्यक्ष निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा उपस्थापित वस्तु को नाम जात्यादिकल्पित पदार्थों से संसृष्ट करता है, वह सत्य स्वलक्षण वस्तु को असत्य पदार्थो से संवृत कर ग्रहण करता है । इसीलिये उसे संवृतिसत्य कहते हैं । सविकल्पक अर्थजन्य न होने के कारण अप्रमाण है। वैदिक दार्शनिक सविकल्पक शब्द के द्वारा प्रमाण और प्रमा दोनों का अभिधान होता है। जैसे इन्द्रिय को प्रत्यक्ष प्रमाण और इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमा कहा जाता है, उसी प्रकार सविकल्पक अर्थ को सविकल्पक प्रमाण और उससे जनित ज्ञान को संविकल्पक प्रमा माना जाता है। सविकल्पक प्रमा को प्रायः वैदिक मताबलम्बी दार्शनिक एकमत से प्रत्यक्ष ही मानते हैं। ऐतिहासिक क्रम की दृष्टि से सर्वप्रथम सविकल्पक के विषय में कुमारिल भट्ट के मत का दिग्दर्शन किया जा रहा है। आचार्य कुमारिल ने सविकल्पक को निर्विकल्पक से उत्पत्ति मानते हुए परम्परया उसके अक्षजत्व की स्थापना की है। 'वस्तु' पद के द्वारा निर्विकल्पक की तरह सविकल्पक की अर्थोत्पन्नता स्वीकार की है । सविकल्पक प्रत्यक्ष में जात्यादि धर्मो से विशिष्ट अर्थ का बुद्धि के द्वारा निश्चय होता है। सविकल्पक ज्ञान के प्रामाण्य में उसका बोधकत्व हेतु है और यह सविकल्पक ज्ञान के प्रामाण्य में उसका बोधकत्व हेतु है। और यह सविकल्पक झान भी प्रत्यक्ष है, इस बात को कुमारिल ने 'सापि प्रत्यक्षत्वेन सम्मता' इस वचन से स्पष्ट कहा है। ___'देवदत्तोऽयम'. स एवायम्' इत्यादि सविकल्पक प्रत्यक्षज्ञानों में स्मरण को अपेक्षा होती है और इन्द्रिय का स्मरण में सामर्थ्य नहीं होता, इस आशंका का निवारण करते हुओ वार्तिककार ने आत्मा में स्मरणसामर्थ्य बतलाकर समाधान किया है। इसी प्रसंग में एक शंका उठ खड़ी होती है कि आत्मा की स्मरणादि में सामर्थ्य मानकर विकल्पसहित वस्तु की प्रत्यक्षता मानने पर निवृत्तेन्द्रियव्यापार वाले पुरुष को भी शब्दस्मरण से 'गौरयम' इत्याकारक जो ज्ञान होता है. वह भी प्रत्यक्ष प्रमाण हो जायेगा । कुमारिल ने यहाँ स्पष्ट कर दिया है कि इसीलिये तो इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान को प्रत्यक्ष बतलाया है। निवृत्तोन्द्रियव्यापारवाले पुरुष में इन्द्रिद्य का गोपिण्ड से सम्बन्ध नहीं है, अतः शब्दस्मरणोत्पन्न 'गौरयम' इत्याकारक ज्ञान में प्रत्यक्षत्वप्रसक्ति नहीं है । 1 ततः परं पुनर्वस्तु धर्मर्जात्यादिभिर्यया ।। बुष्यावसीयते सापि प्रत्यक्षत्वेन सम्मता ॥ - मीमांसाश्लोकवार्तिक, पृ. १७३ :सू ४, का. १२०) 2 तेनेन्द्रियार्थसम्बन्धे विद्यमाने स्मरन्नपि । विकल्पयन् स्वधर्मेण वस्तुप्रत्यक्षवान् नरः ॥ - प्रत्यक्षसूत्र, का. १२३ तच्चतदिन्द्रियाधीनमिति तैयपदिश्यते । तदसम्बन्धजातं तु नेव प्रत्यक्ष भिष्यते ॥-प्रत्यक्षसूत्र का. १२४, मीमांसाश्लोकवार्तिक. १७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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