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प्रत्यक्ष प्रमाण है-'अविनाभावनिरपेक्षः सम्यक् परोक्षानुभवः आर्षः 1 जिससे कि उसका योगि. प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव न हो सके ।
योगिप्रत्यक्ष और अयोगिप्रत्यक्ष दोनों सविकल्पक-निर्विकल्पक भेद से दो प्रकार के होते हैं । यहां प्रथम सविकल्पक प्रत्यक्ष का निरूपण किया जा रहा है
सविकल्पक प्रत्यक्ष भारतीय दर्शन की दो मुख्य धाराएं हैं-वैदिक और अवैदिक । अन्य विषयों की तरह प्रत्यक्ष प्रमाण, उसके भेदों, स्वरूप तथा लक्षण के विषय में भी उनमें पर्याप्त मतभेद प्राप्त होता है । वैदिक दर्शन परम्परा में न्यायवैशेषिक आदि दर्शनों में प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद माने गये हैं -निर्विकल्पक और सविकल्पक । नैयायिक होने के नाते आचार्य भासर्वज्ञ ने भी प्रत्यक्ष प्रमाग के दो भेदों का निर्देश किया है।
प्रत्यक्ष प्रमाण के सम्बन्ध में बौद्धों का अपना विशिष्ट मत है । वे केवल निर्विकल्पक को ही प्रत्यक्ष मानते हैं । आचार्य दिङ्नाग ने 'प्रमाणसमुच्य' में कहा है-'प्रत्यक्षं' कल्पनापोडं नामजात्याद्यसंयुतम् ।' दिङ्नाग की तरह धर्मकोति: आदि आचार्यों ने भी केवल निर्विकल्पक को ही प्रत्यक्ष माना है। बौद्धमत में अर्थजन्य ज्ञान हो प्रमाण होता है। यहां अर्थ से उनको परमार्थसत् अर्थ अभिप्रेत है । स्वलक्षण (वस्तुमात्र ) ही परमार्थसत् है । इस प्रकार स्वलक्षणविषयक होने से निर्वि- . कल्पक हो एकमात्र प्रत्यक्ष प्रमाण है । निर्विकल्पक कल्पनापोढ अर्थात् कल्पनास्वभाव .. से रहित होता है । कल्पना का स्वरूप यहां विचारणीय है, क्योंकि सविकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण की यही आधारभित्ति है । नामजात्यादियोजना अथवा नामादिसंसर्ग को कल्पना कहते हैं। कल्पना की पांच विधाएं सोदाहरण प्रस्तुत हैं१ देवदत्तः - नामयोजना
जातियोजना ३ गच्छति
क्रियायोजना ४ शुक्ल
गुणयोजना ५ दण्डी
द्रव्ययोजना कल्पना की यह पंचविधता नैयायिकों की दृष्टि से है। बौद्धमतानुसार तो यह सब शब्द (नाम) कल्पना ही है, जैसाकि शान्तरक्षित तथा धर्मकीर्ति ने कहा है
'....................... अभिलापिनी । प्रतीतिः कल्पना क्लुप्तिहेतुत्वाद्यात्मिका ||
'अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासप्रतीतिः कल्पना । 1. मानमनोहर, पृ. ९०
4. तत्त्वसंग्रह, कारिका १२१३ 2. प्रमाणसमुच्चय, प्रथमाध्याय, पृ. 5. न्यायबिन्दु, पृ १ 3. न्यायबिन्दु, पृ. १
भान्या-१०
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