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________________ ७२ न्यायसार भिन्न होने पर भी तज्जन्य प्रकृष्ट धर्म में किसी प्रकार का भेद नहीं माना जा सकता । तथा जैसे तपोजन्य, विद्याजन्य, समाधिजन्य धर्म सभी धर्मविशेष-- पदवाच्य हैं, उसी प्रकार योगजन्य धर्म भी धर्मविशेष ही है। अतः योगिप्रत्यक्ष व आप प्रत्यक्ष दोनों में धर्मविशेषजन्यत्वरूप समानता होने से दोनों प्रत्यक्ष अभिन्न हैं। सूत्रकार कणोद ने भी आर्षज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव अभीष्ट होने के कारण उसका पृथक् कथन नहीं किया है, जैसाकि वैशेषिकसूत्रोपस्कार' में शंकर मिश्र ने कहा है, 'आर्ष ज्ञान सूत्रकृना पृथङ् न लक्षितं योगिप्रत्यक्षान्तर्भावितम्' । प्रशस्तपादाचार्य ने आर्षज्ञान को प्रातिभज्ञान अर्थात् प्रतिभाजन्य ज्ञान माना है और प्रातिभज्ञान योगिप्रत्यक्षज्ञान हो है, जैसा कि 'प्रातिभाद्वा' 'ततः प्रानिभप्रावणवेदना. दर्शास्वादवार्ता जायन्ते'* इन योगसूत्रों से स्पष्ट है ।। भासर्वज्ञ के परवर्ती मानमनोहरकार वादिवागीश्वराचार्य ने भो धर्मविशेष से प्रसूत होने के कारण आपज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव क्यों नहीं हो सकता-इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि आर्षज्ञान सर्वत्र धर्मविशेष से जनित नहीं होता। यदि किसी एक आर्पज्ञान में धर्मविशेषजन्यता होने से उसका अन्तर्भाव धर्मविशेषजन्यत्व के आधार पर योगिप्रत्यक्ष में भी मान लें, तब भी आर्षज्ञान में सर्वत्र धर्मविशेषजन्यता . न होने से आपज्ञान को योगिप्रत्यज्ञान्तभूत न मानकर पृथक ही मानना पड़ता है ।' . प्रशस्तपाद ने स्पष्टतया धर्मविशेष को आर्षज्ञान के प्रति कारण बतलाया है। कदाचित् लौकिकों को होने वाले ( यथा कन्यका बयोति -श्यो में भ्राता आगन्ता ) आर्षाज्ञान के प्रति भी धर्मविशेष हो कारणत्वेन माना गया है ।' ऐसी परिस्थिति में - मानमनोहरकार का यह कथन कि आर्षज्ञान कहीं धर्मविशेषजन्य होता है, सर्वत्र नहीं, विचारणीय है। एसा प्रतीत होता है कि धर्मविशेषजत्वरूप साम्य से आर्षज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव करने वाले भासर्वज्ञाचार्य के मत का खण्डन करने का उनका आग्रह है और उपर्युक्त रोति से धर्मविशेषजन्यत्व के कारण उसका निराकरण हो नहीं सकता । अतः उन्होंने आर्षज्ञान का स्वकल्पित नया ही लक्षण प्रस्तुत किया 1. न्यायभूषण, पृ. ११ 2. वैशेषिकसूत्रोपस्कार, पृ. ५१३ 3. गेगसूत्र. ३/३३ 4. वही, ३/३६ 5. धर्मविशेषजत्वाद योगिरत्यक्षान्त त मिति चेत्, न धर्मविशेषजत्वा सिद्धेः । धर्मविशेषमात्रजन्यत्वस्य ध्यभिचारात् । अविनाभावनिरपेक्षः सम्यक् परोक्षानुभव आर्षः । -मानमनोहर, पृ. ९० 6. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. २०८-२०९ कन्यायाश्च ज्ञानसन्दर्शनेन कारणान्तरानुपलम्मेन जन्मान्तरीयतप:प्रभावप्रभावितधर्मविशेषानस्मरणं न्याययम् ।-किरणाबली, पृ. २४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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