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प्रत्यक्ष प्रमाण चाहे विलक्षण व्युत्पत्ति से या काव्यव्याकरणाभ्यासादि कारण से जन्य हो, किन्तु काव्य के प्रति कारण प्रतिभा ही है, उसी प्रकार अलौकिक योगि-प्रत्यक्ष तथा आप प्रत्यक्ष का कारण प्रकृष्ट धर्म है, वह धर्म चाहे योगज हो या तजन्य, विद्याजन्य हो या समाधिजन्य । इसलिये अपरार्क ने न्याययुक्तावली में कहा है 'साधनं तु धर्मः समाधिसाध्यो वा, तपःप्रभृतिसाधनीयो वाऽस्तु । नैतावता प्रमाणभेदः ! कारणानामान्तगणि कभेदेन प्रमाणानन्त्यप्रसक्तेः ।
योनिप्रत्यक्ष में अनेक आगमवचन प्रमाण हैं। योगिसद्भाव की आशंका का निराकरण करते हुए आचार्य भासर्वज्ञ ने बतलाया है कि वे श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास तथा अनेक योगशास्त्रों में प्रसिद्ध हैं । उनका अपलाप पापातिशय ही है, जो नरकादि अनन्त यातनाओं को उत्पन्न करता है । योगिसद्भाव का ज्ञापक अनुमान इस प्रकार है-'धर्मादि केषांचित्प्रत्यक्षं प्रमेयत्वात् करतलवदिति ।”
भासर्वज्ञ के परवर्ती उदयनाचार्य ने आर्षज्ञान के योगिप्रत्यक्षान्तर्भाव का खण्डन किया है । उदयनाचार्य का तर्क यह है कि योगिप्रत्यक्ष के कारण योगजन्य धर्म तथा आर्षज्ञान के कारण तपोजन्य धर्म दोनों के प्रकृष्टधर्मशब्दवाच्य होने से प्रकृष्ट धर्मशब्दवाच्यत्वरूप से समानता होने पर भी उन दोनों धर्मों में प्रकर्षा की प्रवृत्तिनिमित्तता में भेद है। योगिप्रत्यक्ष के कारणभूत धर्म में उस प्रकर्ष का प्रवृत्तिनिमित्त योग है तथा आज्ञान के कारणभूत धर्म में प्रकर्ष का प्रवृत्तिनिमित्त तप या विद्या या समाधि आदि हैं। अतः दोनों के कारणभूत धर्मो के भिन्न होने से तज्जन्य योगिप्रत्यक्ष व आर्षज्ञान में भी भेद है। योगिप्रत्यक्ष में भी आर्षज्ञान की तरह धर्मविशेष को कारण माना नहीं जा सकता, क्योंकि वहां धर्मविशेष की उपलब्धि नहीं । कन्या के ज्ञान में अनागत भ्राता के साथ इन्द्रियसम्बन्ध न होने से तथा उस ज्ञान के यथार्थ होने से अनुपलभ्यभान जन्मान्तरीय धर्मविशेष की कल्पना समुचित है, किन्तु योगिप्रत्यक्ष में योगज धर्म के द्वारा अतीत, अनागत, व्यवहित, विप्रकृष्ट वस्तुओं का ज्ञान संभव होने से धर्मविशेष की कल्पना नहीं मानी जा सकती । अतः धर्मविशेषरूप सामान्यकारणजन्यता को लेकर भी योगिप्रत्यक्ष व आर्ष प्रत्यक्ष को एक नहीं माना जा सकता । अतः दोनों प्रत्यक्ष भिन्न हैं। आर्षज्ञान धर्मविशेषजन्य है, जबकि योगिप्रत्यक्ष योगजधर्मजन्य है। किन्तु किरणावलीकार उदयन का यह भेदप्रतिपादन समीचीन प्रतीत नहीं होता, क्योंकि योगि-प्रत्यक्ष व आर्ष प्रत्यक्ष में प्रकृष्ट धर्मरूप कारण के समान होने से उनका कार्य प्रत्यक्ष भी समान हो होगा । प्रकृष्ट धर्मरूप कारण में विशेषणीभूत प्रकर्ष के कारणों के भिन्न 1. तस्य च कारण कविगता केवला प्रतिमा । ......... न तु त्रयमेव । -रसगंगाधर, पृ. ८ 2. न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, १७९ 3. वही 4. किरणावली, पृ. २४६ 5. किरणावली, पृ. २४६
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