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________________ न्यायसार सामान्य व विशेष में भेद होने पर भी अनुवृत्ति और व्यावृत्ति का ग्रहण न होने के कारण निर्विकल्पकज्ञानदशा में भेदबुद्धि उदित नहीं होती है। सामान्य तथा विशेष वस्तु से भिन्न अनुवृत्ति व व्यावृत्ति के ग्रहण में इन्द्रियों का सामर्थ्य न होने के कारण सामान्य और विशेष के अनुवृत्ति तथा व्यावृत्ति अंश प्रत्यक्षविषय कैसे हो सकते हैं, इस आशंका का अपाकरण करते हुए शालिनाथ ने बतलाया है कि इन्द्रियां अथवा ज्ञान ही यदि चेतन होते, तो यह आपत्ति उपस्थित होती. किन्तु ऐसी बात नहीं । अतः समस्त अनुभवितव्य का अनुभविता आत्मा संस्कार द्वारा अन्य वस्तु का अनुसंधान करता हुआ इन्द्रिय के द्वारा सामान्य विशेष रूप से वस्तु को प्रतीति कर ही सकता है। पटादि अन्य वस्तु के अनुसन्धान के पश्चात् ही भिन्नता का निश्चय होता है । यह सविकल्पदशा में ही संभव हो सकता है, निर्विकल्पक में नहीं । सविकल्पक प्रत्यक्ष की ऐन्द्रियकता का स्पष्टतया समर्थन करते हुए शालिकनाथ ने कहा है 'न चेदलमनिन्द्रियजं ज्ञानम्, इन्द्रियाधीनप्रवृत्तित्वात् । अपरोक्षावभासो ह्ययं सविकल्पकप्रत्ययः । तादृशो नेन्द्रियव्यापारमन्तरेणास्ति । 1 अनुवृत्ति और व्यावृत्ति से अन्वय और व्यतिरेक अभिमत हैं। अन्वयव्यतिरेक दो प्रकार का होता है-एक तार्किकसम्मत और दूसरा मीमांसकाभिमत । तार्किकसम्मत अन्वयव्यतिरेक कार्यकारणभावग्रहण में उपयोगी होता है, क्योंकि 'यत्सत्वे यत् सत्त्वम्' यह अन्वय का स्वरूप माना जाता है और 'यभावे यदभावः' यह व्यतिरेक का स्वरूप । 'दण्डसत्वे घटसत्वम्' 'दण्डाभावे घटाभावः' इस प्रकार अन्वयव्यतिरेक दण्ड और घट के कार्यकारणभावग्रहण का उपयोगी है । मीमांसकाभिमत, विशेषत: अद्वैत वेदान्तियों ने जिसका उपयोग किया है, अन्वय व्यतिरेक भेदग्रह का उपयोगी माना जाता है । 'यस्य अन्वये यस्य व्यतिरेकः, स ततो भिन्नः' इस पद्धति के आधार पर घटत्वजाति का सभी घटो में अन्वय और घटव्यक्तियों का परम्पर व्यतिरेक या भेद देखकर यह निश्चित होता हैं कि घटत्व जाति और घटव्यक्ति दोनों परस्पर भिन्न है। इसी प्रकार घटस्टादिज्ञान सर्वानुगत होने से अनुवृत्ति का विषय है और घटपटादि विषय परस्पर व्यावृत्त होने के कारण व्यावृत्ति के विषय हैं । अनुवृत्त व्यावृत्त से भिन्न होता है, अतः ज्ञान और विषय का भेद, आत्मा और अनात्मा का भेद स्थिर किया जाता है। एवं अन्वित वस्तु में एकता और व्यतिरिक्त वस्तु में अनेकता भी अन्वय व्यतिरेक से सिद्ध की जाती है। 2. ननु वस्त्वन्तरानुसन्धाने नेन्द्रियं समर्थम् । इन्द्रियसामर्यसमुत्थञ्च प्रत्यक्षमिति कथं सामान्यविशेषात्मकं प्रत्यक्षस्य विषय: ।-प्रकरणपंचिका, पृ. १६४. 3. भवेदेतदेवं यदिन्द्रिया येव चेतनानि स्युः, ज्ञानानि वा । आत्मा त्वेक: सर्वानुभवितव्यानुभविता संस्कारवशेन वस्त्वन्तरमनुसन्दधदिन्द्रियेण सामान्यविशेषात्मना वस्तु शक्नोत्येव प्रत्येतुम् । -प्रकरणपंचिका, पृ. १६४-१६५. 4. सविकल्पकन्तु विशेषणविशेष्यमावमनुगच्छति । -वही, पृ. ५५. 5. प्रकरणपंचिका, पृ. ५६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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