SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [७] 'प्रमाणमामान्यलक्षण' नामक द्वितीय विमर्श में प्रमाणलक्षण, संशय तथा विपर्यय का विवेचन किया गया है। इसी विमर्श में ऊह अंर अनध्यवसाय का संशय में अन्तर्भाव, प्रमाणों का सम्प्लव तथा व्यवस्था आदि विषयों का विवेचन किया गया है। 'प्रत्यक्षप्रमाण' नामक तृतीय विमर्श में भासर्वज्ञसम्मन प्रत्यक्षलक्षण, प्रत्यक्षशब्द के व्युत्पत्तिनिमित्त तथा प्रवृत्ति नमित्त का भेद. निर्विकल्पक-सविकल्प भेद, आर्षज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव, समवाय का यौक्तिक प्रत्यक्षत्व, द्रव्यादिप्रत्यक्ष आदि का विवेचन किया गया है। 'अनुमान प्रमाण' नामक चतुर्थ विमर्श में अनुमान के सौत्र लक्षण के सम्बन्ध में भ सर्वज्ञमत का प्रतिपादन करते हुए भासर्वज्ञसम्मत अनुमानलक्षण का विवेचन किया गया है। इसी विमर्श में व्याप्तिस्वरूप, व्याप्तिमहोपाय, अनुमान के भेद, प्रतिज्ञादि पांच अवयव, दृष्टान्ताभासों तथा हेत्वाभासों का विवेचन करते हुए भासर्वज्ञ के वैशिष्ट्य का दिग्दर्शन किया गया है । 'कथानिरूपण तथा छल- जाति-निग्रहस्थाननिरूपण' नामक पंचम विमर्श में वाद, जल्प, विनण्डा, और छल का विवेचन किया गया है । इस विमर्श में जातिभेदों तथा निग्रहस्थानों का निरूपण किया गया है ।। ___ 'आगमप्रमाणनिरूपण' नामक षष्ठ विमर्श में आगम प्रमाण के लक्षण, उसके भेद आदि का प्रतिपादन किया गया है । इसी विमर्श में भासर्वज्ञमतानुसार उपमान के पृथक् प्रामाण्य का निराकरण प्रस्तुत कर उसकी समीक्षा की गई है। __ 'प्रमेयनिरूपण' नामक सप्तम विमर्श में प्रमेयविशेष का लक्षण देते हुए द्वादश प्रमेयों का संक्षेप में निरूपण किया गया है। भासर्वज्ञसम्मत प्रमेयचातुर्विध्यविभाग तथा आत्मसिद्धि आदि का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। _ 'अपवर्गनिरूपण' नामक अष्टम विमर्श में भासर्वज्ञमतानुसार अपवर्गस्वरूप का निरूपण तथा उसकी समीक्षा की गई है। 'परवर्ती प्रन्थकारों पर भासर्वज्ञ का प्रभाव' नामक नवम तथा अन्तिम विमर्श में परवर्ती दार्शनिकों पर भासर्व के प्रभाव का विवेचन किया गया है। अन्त में उपसंहार के रूप में मासर्वज्ञाचार्य की विशेषताओं का दिग्दर्शन करते हए उपलब्धियों का उल्लेख किया गया है। वैदिक विज्ञान, साहित्य, व्याकरण तथा भारतीय दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान, परम पूज्य गुरुवर्य परिव्राजक श्री सुरजनदासजी स्वामी के चरणों में मैं प्रणतिपूर्वक कृतज्ञताज्ञापन करता हूँ, जिनकी प्रेरणा से ही भारतीय दर्शन के अध्ययन में मेरी प्रवृत्ति हुई । आपके कुशल निर्देशन से हो मैं इस शोधकार्य को सम्पन्न कर सका हूँ। विश्वविद्यालय-सेवा से निवृत्त होने के पश्चात वैदिकविज्ञानसम्बन्धी लेखनात्मक कार्य में अत्यधिक व्यस्त होने पर भी अपना अमूल्य समय देकर मेरी शोधकार्य: सम्बन्धी समस्याओं का समाधान किया है । एतदर्थ मैं उनका अत्यन्त अभारी हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy